पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०१

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(१०८२) योगवासिष्ठ । निवृत्त हो जावैगा ।। हे राजा । जब तेरा अहंकार निवृत्त होवैगा, तब तेरे ताईं सर्वात्माही भासैगा, अरु दुःखते रहित शुतिरूपं स्वप्रकाश होवैगा । हेराजन् यह लज्जारूप फांसी जबलग निवृत्त नहीं होती, तबलग आत्मपदकी प्राप्ति नहीं होती, लज्जा कहिये मैं हौं, अरु मेरा है, तृष्णा अरु शोक दुःख अरु भला कहावनेकी इच्छा इत्यादिक जो मोहके स्थान हैं, सो लज्जा है, ताते तू अहं ममते रहित होउ, अरु तेरे शत्रु जो तेरा राज्य लेनेकी इच्छा करतेहैं तिनको अपना राज्य दे, अरु क्षोभते रहित होकर पुत्र स्त्री बांधव इनके मोहते रहित होउ, अरु मेरे मोहते भी रहित होउ, अरु राज्यका त्याग कारकै एकांत देशविपे स्थित होउ, अरु तिन शत्रुके घरते भिक्षा माँग, जो तेरे ताईं भला कहनेकी इच्छा न रहै, ताते उठि खड़ा होउ ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निणप्र- करणे भगीरथोपदेशो नाम त्रिषष्टितमः सर्गः ॥ ६३॥ चतुःषष्टितमः सर्गः ६४. भगीरथोपाख्यानम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! इसप्रकार जब त्रितल ऋषीश्वरने उपदेश किया, तब राजा उठि खडा हुआ, घरको गमन किया, गुरुका उपदेश हृदयविषे धारिकार अपने राज्यविषे आनि स्थित हुआ, अरु राज्य करने लगा, मनविषे विचार भी करै, जब केतक काल बीता तब राजाने अग्निष्टोम यज्ञका आरंभ किया, अग्निष्टोम यज्ञ कुहिये धनका त्याग-करना, सो राजा धनका त्याग करने लगा, त्रयदिनविषे धनका : त्याग किया, हस्ती घोडे रथ भूषण वस्त्र इत्यादिक जो ऐश्वर्य था, सो लोकको दिया, ब्राह्मणों अरु अर्थी अरु पुत्र स्त्रीको अरु अपने जो शत्रु थे तिनको, पृथ्वीका राज्य दिया, जब इसप्रकार राज्य दिया,तब राजा जो थे शत्रु तिनने देखा कि अब राजा भगीरथविषे पराक्रम कछु नहीं रहा, तब उन शत्रुओंने आयकार इसका देश लिया, हवेली पर आनि