पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०२

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भगीरथोपाख्यानसमाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण-६. (१०८३) स्थितहुए, जैते राजाके स्थानथे सो रोक लिये, राजा धोतीअंगोछा साथ रहि गया, अपर सब शत्रुओंने लिया, तब राजा वहाँते निकसा ॥ हे रामजी । इसप्रकार जब राजा निकसा, तब वनको गया, वनते अपर वनविषे विचरता है, अरु शांतपद् आत्माविषे स्थित हुआ, अनिच्छित विचरै, जब केतक काल व्यतीत भया, तब राजा भगीरथ अपने देश- विषे आया, जो राजाके शत्रु थे तिनके गृहते भिक्षा माँगने लगा, तब शत्रु अरु लोगोंने देख बहुत पूजा करी, अरु कहा ॥ हे भगवन् ! तुम राज्यको ग्रहण करौ, तब राज्य ग्रहण न किया जैसे पृथ्वीपर पड़ा तृण तुच्छ बुद्धिकारकै नहीं ग्रहण करता, तैसे राज्यका ग्रहण न किया,केताक काल वहां रहिकारै बहुरि चला, तब त्रितले ऋषि जो अपना गुरु था अपनिच्छित तहां गया, तब गुरुने भी आत्मत्वकारिकै ग्रहण किया, अरु शिष्यने भी गुरुको आत्मत्वकारिकै ग्रहण किया, गुरु अरु शिष्यकीभा- वनाते दोनों रहित हुए, फुरै कछु नहीं, केतक काल एक स्थानविषे रहे बहुरि वनविषे इकडे विचरने लगे, अरुशांत अआत्मपदविषे दोनों स्थित रहे, अरु राग द्वेषते रहित केवल एकरस स्थित रहे, तिनको न देह त्यागने की इच्छा, न देह रखनेकी इच्छा अनिच्छा प्रारब्धविषे स्थितरहैं। तब स्वर्गलोकके जोःसिद्ध थे, तिनने आनि पूजा करी, अरु बुड़े ऐश्वर्य पदार्थ चढाये, अरु बहुत अप्सरा आई, जेते ऐश्वर्य भोग पदार्थ थे, सो आनि स्थित हुए, तिनको उनने तुच्छ जाना, जो आत्मसुख करि तृप्त थे अरु केवल आकाश वत् निर्मल थे, कलंकतारूपी मलते रहित प्रकाशरूप अरु समचित रहैं। हे रामजी । जैसे राजा भगीरथ स्थित हुआहे, तैसे तुमभी स्थित होओ ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भगीरथोपा- ख्यानं नाम चतुःषष्टितमः सर्गः ॥ ६४ ॥ पंचषष्टितमः सर्गः ६५. भगीग्थोपाख्यानसमाप्तिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! केतक काल बीता, तब भगीरथ वहाँते। चला, एक देशका राजा मृतक हुआ था, तिसकी जो लक्ष्मीथी, सो