पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०४

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शिखरध्वजचूडालाभाप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०८५) केवल शांत आत्मपद है, तिसविषे स्थित भया है, जैसे पवनते रहित समुद्र अचल होता है, तैसेही संकल्पविकल्पते रहित होकार स्थित भया ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे भगीरथोपाख्यानसमाप्तिनम पंचषष्टितमः सर्गः ॥६५॥ षट्षष्टितमः सर्गः ६६. शिखरध्वजचुडालाप्राप्तिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह जो भगीरथकी दृष्टि तेरे ताई कही। हैं, तिसको आश्रय कारकै विचरौ, कैसी यह दृष्टि है कि, सर्व दुःखका नाश करती है; अरु एक आख्यान ऐसा आगे भी व्यतीत भया है, ऐसाही शिखरध्वज राजा होत भया ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! वह शिखरध्वज कौन था, अरु किसप्रकार चेष्टा करत भया; सो कृपाकारकै कहौ । वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! राजा शिखरध्वज आगे था, अरु बहुरि भी होवैगा, सप्त मन्वंतर व्यतीत भये थे, अरु चौकडी चतुर द्वाप- श्यगकी थी, तिस कालविघे हुआ था, सो कैसा राजा था कि, संपूर्ण पृथ्वीका तिलक था, अरु जैसे शूरवीर हैं, तिनते उत्तम था, अरु जेता ऐश्वर्य है, तिसकार संपन्न था, अरु तिसविणे बंधमान न होत भया, अरु जेते भोग हैं, तिनके भोगनेको समर्थ था, अरु बडे ओजकर संपन्नथा, उदार अरु धैर्यवान् था, किसीपर जोर जुलुम न करता था, समचित्त अरु शांतपदविषे स्थित था, संपूर्ण दुःखते रहित, अरु जो कोई अर्थी हो, तिसका अर्थ पूर्ण कत्तों ऐसा था, अरु बहुरि भी होवैगा ॥रामं उवाच ।। हे भगवन् ! ऐसा जो ज्ञानवान् राजा था सो बहुरि जन्म किस- निमित्त पावैगा ज्ञानी तौ बार नहीं जन्म पाता, वह कैसे पावैगा ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे एक समुद्रविषे कई तरंग समानउठते हैं, कई अर्ध सम, कई विलक्षण भावकरि फुरते हैं, जैसे आत्मसमुद्रविर्ष कई आकार एक जैसे ऊरते हैं, कई अभावकरि कुरतेहैं, कई विलक्षणभाव ऊरते हैं, जो समान ऊरते हैं, तिनकी चेष्टा अरु आकार एक जैसे हुए