पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०७

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( १०८८ ) यौगवासिष्ठ । विषुचिका ब्रह्मविद्याके मैत्रकार निवृत्त होती हैं, ब्रह्मविद्याकरि ज्ञान उपजता है, अरु आत्मज्ञानकार सर्व दुःख निवृत्त हो जाते हैं, इसते अपर उपाय कोई नहीं, ताते आत्मज्ञानके निमित्त हम संतपास जावें ॥ हे रामजी ! ऐसे विचार कारकै राजा अरु चूडाला संत जो हैं, आत्म- ज्ञानी तिनके पास चलें; अरु आत्मज्ञानकी वार्ता करें आत्मज्ञानवि तिनका चित्त अरु भावना आपसमें विचार अरु चर्चा करनी, आत्म- परायण होकार संतपास गये, सो कैसे संत हैं, जो संसारसमुद्रते तराव- णेवाले हैं, अरु आत्मवेत्ता हैं, तिनपास जायकर पूजा करत भये, अरु उनसों प्रश्न किया, तब राजा अरु रानी उनसों ब्रह्मविद्या श्रवण करने लगे, आत्मा शुद्ध है, अरु आनंदरूप हैं, जिसके पायेते दुःख निवृत्त हो जाते हैं, चेतन है, अरु एक है, इसप्रकार सुनते भये ॥ हे रामजी ! तब रानी चूडाला विचारविषे लगी, जब राजाको कोङ टहल करै, परंतु उसके चित्तकी वृत्ति विचारविर्षे रहै, सो विचार यह कि, मैं क्या हौं, अरु यह संसार क्या है, अरु संसारकी उत्पत्ति किसते है, ऐसे विचार करि जानने लगी कि, यह पंचतत्त्वका शरीर है, सोभी मैं नहीं, काहेते कि, शरीर जड है, अरु यह कर्म इंद्रियां भी जड हैं, जैसा शरीर है, तैसे- शरीरके अंग हैं, यह जो चेष्टा करते हैं, सो ज्ञानइंद्रियाँ कारकै करते हैं, सो ज्ञानइंद्रियां भी मैं नहीं, काहेते कि यह भी जड है, मनकार मनकी चेष्टाहोती है, सो मन भी जड है, तिसविषे संकल्प विकल्प चेतना है, सो बुद्धिकार है, अरु बुद्धि भी जड़ है, जो तिसविषे निश्चय चेतना है, सो अहंकार करकै होता है, अरु अहंकार भी जड़ है, जो तिसविषे अहं चेतनाकरिकै होती है, सो चेतनता भी जीवकारिकै होती हैं, तो जीव भी मैं नहीं, काहेते कि, यह जीवत्व ऊरनरूप है, अरु मेरा स्वरूप अक्रुर है, सदा उद्यरूप है, अरु सन्मात्र है, बड़ा कल्याण है, जो चिरकालकारकै मैं अपने स्वरूपको पाया है, सो कैसा पद है, अवि- लाशी है, अनंत है, अरु आत्मा है, जैसे शरत्कालको आकाश निर्मल होता है, तैसे मैं निर्मल हौं, अरु विगतज्वर हैं, रागद्वेषरूपी तापते रहित हौं, अरु चिन्माच पद हौं, अरु अहं त्वते रहित हौं, मेरेविषे