पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२०९

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(१०९०) योगवासिष्ठ । अष्टषष्टितमः सर्गः ६८. अग्निसोमविचारवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे समजी ! इसप्रकार चुडाला विचार करत भई, सो कैसी चूडाला है, कि तृष्णा निवृत्त भई है जिसकी, दुःख भय अरु भोगवासना सब निवृत्त भई है, केवल शति आत्मपदको पायकार शोभत भई हैं, जो पाने योग्य पद हैं, तिसको पायकारे जानत भई, कि एता काल मैं अपने स्वरूपते गिरी रही हौं, अब मेरे ताई शांति हुई है, अरु दुःख सब मिटि गये हैं, अब मेरे ताईं अहण त्याग कछु नहीं ॥ हे रामजी! अपने आत्मस्वभावविष स्थित भई, अरु एकति बैठिकार समा- धिविषे लगी, जैसे वृद्ध गो पर्वतकी कंदराको पायकार बहुत तृणघास- करि प्रसन्न होती है, तैसे अपने आनंदरूपको पायकार चुडाला स्थित भई ।। हे रामजी ! ऐसे आनंदको प्राप्त भई, जिसको वाणीकार नहीं कह सकता, तब राजा शिखरध्वज आय रानीको देखिकार आश्चर्यको प्राप्त भया, अरु कहा॥हे अंगना । अब तू बडार यौवन अवस्थाको प्राप्त भई है, तेरे ताई कोऊ बडा आनंद प्राप्त भया है, कदाचित् तैने अमृतका सार पान किया है, ताते अमर भई है, अथवा तेरे ताईं किसी योगेश्व- रने कलाको प्राप्त करी है, अथवा त्रिलोकीका ऐश्वर्य तुझमें प्राप्त भया है ॥ हे अंगना ! तेरे ताईं कौन वस्तु प्राप्त भई है, तेरे चित्तकी वृत्ति मैं ऐसे जानता हौं कि, अमृतका सार तैने पान किया है, अरु त्रिलो- कीके राज्यते भी तैने कोई अधिक पदार्थ पाया हैं, तू बडे आनंदको प्राप्त भई है, तिस आनंदका आदि अंत कोई नहीं देखपड़ता, अरु तेरेवि घे भोगवासना भी नहीं दीखती, शांत हो गई है, जैसे शरत्काल आकाश निर्मल होता है, तैसे तेविषे निर्मलता दीखती है, अरु तेरे श्वेत बाल भी बडे सुंदर दृष्ट आते हैं, सो कहहु तेरे ताई क्या वस्तु प्राप्त भई है ॥ चूडालोवाच ॥ हे राजन् ! यह जो कछु देखता है, सों किंचित् है, अरु इसते जो रहित निष्किचन पद है, तिसको मैं पाई हौं, तिसका आकार निष्किचित् है, अरु दूसरेका अभाव हैं, तिसीको पायकार मैं श्रीमान भई हौं, अरु जेते कछु भोग हैं, तिनते रहित