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योगवासिष्ठ ।


तृष्णा नाश होवै तब जानिये कि अज्ञानको अभाव भया है ॥ हे रामजी ! तृष्णारूपी विधूंचिका रोग है, तिसके नाश करनेका मंत्र अध्यात्मशास्त्र है, तिसके अभ्यासकार तृष्णा क्षीण हो जाती है, जैसे शरत्कालविषे कुहिड नष्ट हो जाती हैं, तैसे आत्म अभ्यासकार चित्त शांत हो जाता है, जैसे शरत्कालविणे मेघ नष्ट हो जाता है, तैसे विचारकार मूर्खता नष्ट हो जाती है, जब चित्त अचित्तताको प्राप्त होता हैं, तब वासनाश्चम क्षीण हो जाता है जैसे तागेसाथ मोती परोये होते हैं,तागेके टूटेते मोती भिन्न भिन्न हो जाते हैं, तैसे अज्ञानके नष्ट हुवे मनआदिक सब नष्ट हो जाते हैं. अरु जो पुरुष आध्यत्मशास्त्रके अर्थको नहीं धारते, अरु प्रीति नहीं करते, सो पापी कीटादिक नीच योनिको प्राप्त होवेंगे ॥ हे कमलनयन ! तेरेविपे जो कछु मूर्खता चंचलता थी सो नष्ट होगई है, जैसे पवनके ठहरेते जल अचल होता है, तैसे तू स्थिरताको प्राप्त भया है, भावअभावरहित परम आकाशवत् निर्मलपको प्राप्त भया है ॥ हे रामजी ! ऐसे मैं मानता हौं, कि मेरे वचनोंकार तू बोधको प्राप्त हुआ है, अरु विस्तृत अज्ञानरूपी निद्राते जागा है, सामान्य जीव भी हमारी वाणीकार जाग पड़ते हैं, तू तौ अति उदारबुद्धि है, तेरे जागनेविपे क्या आश्चर्य है ।। हे रामजी ! जब गुरु दृढ़ होता है, अरु शिष्य शुद्ध पात्र होता तब गुरुके वचन उसके अंतर प्रवेश करते हैं, सो मैं गुरु भी समर्थ हौं जो मुझको अपना स्वरूप सदा प्रत्यक्ष हैं, अरु सच्छास्त्रके अनुसार मैं वचन कहे हैं, अरु तेरा हृदय भी शुद्ध है, तिसविषे प्रवेशकार गये हैं, जैसे तृप्त पृथ्वीके क्षेत्रविपे जल प्रवेशकार जाताहै, तैसे तेरेविषे वचनोंने प्रवेश कियाहै ।। हे राघव ! हम महानुभाव रघुवंशकुलके बड़े गुरुके गुरु हैं, हमारे वचन तुमको धारणे आतेहैं,अरु खेदते रहित होकर अपने प्रकृत आचारको करौ॥वाल्मीकिरुवाच ॥ इसप्रकार मुनीश्वरने जब कहा तब सूर्य अस्त होने लगा, सर्व सभा परस्पर नमस्कार करिकै अपने स्थानको गई, रात्रिके व्यतीत हुए सूर्यकी किरणसाथ बहुर आय बैठे ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे चित्तभावाभाववर्णनं नाम चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥