पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१०९३) योगवासिष्ठ । कोकार चेष्टा करने लगी, तब एक समय रानीके मनविषे आया, कि मैं प्राणको ऊपर चढाऊ, अरु अवको लावौं, उदान अरु अपानको अपने वश करौं, किसनिमित्त कि आकाशको भी उड़ौं, अधको भी गमन करौं, ऐसे चितवनाकारकै रानी योगविषे स्थित भई, प्राणायाम करने लगी ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! यह संसार संकल्पते उत्पन्न भया है, स्थावरजंगमरूप संसारवृक्ष है, अरु संकल्प इसका बीज है, तब वह प्राणायाम पवन है, जिसकार आकाशको उडते हैं, अरु फिर तलेको आते हैं, अरु अज्ञानी पुरुष यत्नकारकै सिद्धि करते हैं, अरु ज्ञानवान कैसे लीलाकार विचरते हैं, इसका उत्तर कहौ ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! तीन प्रकारकी सिद्धि होती है, सो श्रवण करु, एक तौ उपादेय है, कि यह वस्तु मेरे ताईं प्राप्त होवे, तिस- निमित्त अज्ञानी यत्न करते हैं, अरु एक जो यह दुःख मेरा निवृत्त होवे, मैं सुखी होऊॐ महाअज्ञानीको यह चिंता रहती है, अरु एक यह है कि मैं कर्म करता हौं, तिसका फल मेरे ताईं सिद्धि होवै, यह भी अज्ञानी है, काहेते कि आपको करता मानता है, अरु ज्ञानवान् इनते उल्लंधित वर्तता है, कदाचित् ज्ञानवान् इसविषे वर्तता है, तो भी तिसके निश्चय- विषे यह है कि न मैं कत्त हौं न भोगता हौं, अरु योगकरिके इसप्रकार सिद्ध होते हैं, जो देश काल वस्तु क्रिया तिनके अधीन हो जाते हैं, क्रिया कहिये सुखविषे गुटका राखना तिसकार जहां चाहे तिसी ठौर- विषे जाय प्राप्त हवै, अरु अंजन नेत्रोंविषे पाना, तिसको देखा चाहैं, तिसको देखि लवै, अरु खड्स हाथविषे धारिकार संपूर्ण पृथ्वीको वश- कर लेना, यह तौ क्रिया पदार्थ हैं. अरु देश यह कि सर्व पर्वत हैं, तिनविषे केती पीठ हैं, अरु बडा उत्तम है, अरु जिसप्रकार यह सिद्ध होते हैं, सो श्रवण कर, एक कुंडलिनी शक्ति है; आधार चक्रविषे नाभिके तले सर्पिणीकी नाईं तिसविषे कुंडल हैं, कुंडलको मारि बैठी है, अरु वासनाही तिसविषे विष है, अरु जेती नाडी हैं, तिनकी समष्टि नहीं है, तिस कुंडलिनीविषे जब मनन होता है तब मन होकारै प्रगट होता है, अरु निश्चय होता है, तब बुद्धि प्रगट होती है, जब अहंभाव होता