पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२१२

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अग्निसोमविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१०९३) है, तब अहंकार प्रगट होता है, जब स्मरण होता है, तब चित्त-प्रगट - होता है, अरु जब तिसविषे स्पर्शकी इच्छा होती है, तब पवन प्रगट होता है, इसीप्रकार पंचतन्मात्रा अरु चारों अंतःकरण प्रगट होते हैं, अरु जेती नाडी हैं, सो सर्व कुंडलनीते प्रगट होती हैं; अरु आत्माका प्रगट होना भी तिसीते जानता हौं। राम उवाच ॥ हे भगवन् । आत्माको प्रगट तिसते कैसे जाना जाता है, आत्मा तौ देश काल वस्तुके परि- च्छेदते रहित है, सर्व देश, सर्व काल, सर्व वस्तुकार पूर्ण है ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे सूर्य का प्रतिबिंब जलविषे देखपडता है, अरु धूप सर्व ठौर देखपडता है, तैसे ब्रह्मसत्ता सर्वत्र समान है, अरु प्रगट सात्त्विक गुणविषे देखपडता हैं, जेती कछु नाडी अरु इंद्रियां हैं, तिनका उदय होना कुंडलनी शक्तिसों है, अरु जब यह जीव कुंडलनी शक्ति- विषे स्थित होकर पवनको स्थिर करता है, तब जेती कछु अंतर प्राण- वायु है, सो सर्व इसके वश होता है, जैसे सर्व सेना राजाके वश होती है, तिसी प्रकार सर्व इंद्रियां इसके वश होती हैं, अरु जो इसके वश प्राणवायु नहीं होती, तौ इसको आधि व्याधि रोग उपजते ॥ राम उवाच । हे भगवन् । आधि व्याधि कैसे होती हैं, सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! आधि नाम है मनकी पीडाका, अरु व्याधि नाम हैं देहके दुःखका, आधि तब होती है, जब इसको संकल्प होता है, कि यह सुख मेरे ताईं प्राप्त होवे, अरु वह वस्तु इसको नहीं प्राप्त होती, तब चिंता- करिकै दुःख पाताहै; अरु व्याधि तब होतीहै, जब वात पित्त कफका विकार शरीरविषे होता है, अरु दुःख पाता है, जब मन अरु शरीरका दुःख इकट्ठा होता है, तब आधि व्याधि दुःख इकडे होते हैं, जब भिन्न भिन्न होते हैं, तब दुःख भिन्न भिन्न होते हैं, अज्ञानीको अरु ज्ञानवान्को न आधि होती हैं, न व्याधि होती है; अरु यह योगकी कला मैं विस्ता- रकार नहीं कही, काहेते कि पूर्वके ज्ञानक्रमका प्रसंग रहा जाता हैं, अरु जेती कला है, तिन सर्वको मैं जानता हौं, परंतु यह कला ज्ञान- मार्गको रोकनेहारी है, इसीते विस्तारकारकै नहीं कहता, अरु वासना चार प्रकारकी है, सो श्रवण कर, एक वासना सुषुप्ति है,