पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२१५

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(१०९६) योगवासिष्ठ । है, एक मुहूर्तपर्यंत तहां स्थित होवे, तब आकाशविषे सिद्धिको देखत है, जिसप्रकार क्रम है, तैसे तुझको कहता हौं । हे रामजी ! सुषुम्नाके अंतर जो ब्रह्मरंध्र है, पूरककार तिसविषे कुंडलनी शक्ति जब जाय स्थित होती है, तहां अथवा रेचक प्राणवायुके प्रयोगते द्वादश अंगुलपर्यंत मु- खसों बाह्य अथवा अंतर ऊध्र्वभूत मुहूर्त एक लगे स्थित होती है, तब आकाशविघे सिद्धका दर्शन होता है ॥ राम उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! जब ब्रह्मरंध्र जीवकला जाय स्थित होती है, तब तहाँ सिद्धोंका दर्शन कैसे होता है, दर्शन तौ नेत्रोंकार होता है, सो नेत्र आदिक इंद्रियां वहाँ कोई नहीं होतीं, नेत्रविना दर्शन कैसे होता है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे महा- बाहु रामजी ! भूचर जो हैं, पृथ्वीविषे विचरनेवाले इंद्रियगण, तिनको नभश्चर जो हैं, आकाशविषे विचरनेवाले, तिनका दर्शन नहीं होता, परंतु दिव्य दृष्टिकरि दृष्ट आते हैं, चर्मदृष्टि साथ नहीं दृष्ट आते, विज्ञा- नके निकट जो निर्मल बुद्धि नेत्र होते हैं, तिनसाथ दर्शन होता है, जैसे स्वमविषे चर्मनेत्रोंविना भी सर्व पदार्थ दृष्ट आते हैं, जैसे सिद्धोंका दर्शन होता है, परंतु एती विशेषता है कि स्वप्नके पदार्थ जाग्रतविषे नहीं भासते, अर्थ सिद्ध नहीं होते, अरु सिद्धोंके समागमकी चेष्टा जाग्रत्- विषे भी स्थिर प्रतीत होती हैं, मुखके बाह्य जो द्वादश अंगुलपर्यंत अपा- नुका स्थान है, जो रेचकग्राणायामका अभ्यास होता है, अरु चिरपर्यंत प्राण स्थिरभूत होता है, तब और पुरिया अरु दिशाके स्थानमें प्राप्त होनेको सामथ्र्य होता है ॥ राम उवाच ॥ हे ब्राह्मण ! जो पदार्थ चंच- लरूप हैं, तिनका स्थिर होना कैसे होताहै, वक्ता जो गुरु है, सो कृपा- कार कहते हैं, दुष्प्रश्न जो तर्करूप है, तिसकरिकै भी खेदवान् नहीं होते ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रासजी ! जैसी जैसी वस्तु हैं, तैसी तिस- की शक्ति स्वाभाविक होती हैं, यह आदि जगत्के फुरणे कार नीति भई है, तैसे अबलग आत्माविषे स्वभाव शक्तिका ऊरणा होता है, यह जो अविद्या है सो असवरूप है, जो कहूं वस्तुरूप होकार भी भासतीहै, सो जैसे वसंतऋतुविषे भी शरत्कालके फूल हड़ आते हैं, अरु वसंतऋतुके शरत्कालविषे भासते हैं अरु यह भी एक नीति है कि, इसकरिके यह