पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२१६

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अग्निसोमविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११९७) दुव्यकी शक्ति ऐसे हो जावै, परंतु स्वरूपते सब ब्रह्मरूप है, और द्वैत । नानात्व कछु नहीं, केवल ब्रह्मतत्त्व अपने आपविषे स्थित है, व्यवहा- रके निमित्त नानात्वकी कल्पना हुई है, वास्तवते द्वैत कछु नहीं ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! सूक्ष्म रंधते स्थूलरूप कैसे निकस जाती है। अरु अणु सूक्ष्मरूप होकर बहुवारि स्थूलभावको कैसे प्राप्त होती है । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे ओरसे काष्ठ कटता है, अरु उसके दो टुकड़े हुए तिनको शीत्रही घर्षण कारये, तब तिनसों स्वाभाविक अग्नि प्रगट होता है, तैसे उदरविषे माँसमय जो मल हैं, तिसके मध्य हृदयकमल हैं, तिसविषे सूर्य अरु चंद्रमाकी स्थिति है, तिस कमलके अंतर दो कमल हैं; एक अधः दूसरा ऊध्र्व, सो अधः चंद्रमाकी स्थिति है, अरु ऊव सूर्यकी स्थिति हैं, तिसके मध्यविषे कुंडलिनीलक्ष्मी स्थित है, जैसे पद्मराग मणिका डब्बा होवै, जैसे मोतियोंका भंडार होवै, तैसे उसका मुहाउज्वलरूप है, जैसे आवर्स फेनके मिलनेते शल शल शब्द प्रगट होता है, तैसे उसते शब्द निकसता है, जैसे डंडसाथ हलायेते सर्पिणी शब्द करती है, तैसे उस कुंडलिनीसों प्रणवशब्द उदय होता है । हे रामजी ! आकाश अरु पृथ्वी जो है, ऊध्वे अरु अधरूप दो कमल तिनकेमध्यविषे कुंडलिनीशक्ति स्पंदुरूपिणी स्थित है, जीवकला पुर्यष्टक अनुभवरूपअतिप्रकाश सूर्यकी नाईं हृदयरूप कमलकी भ्रमरी है, सो सबनका अधिष्ठान आदि शक्ति है, हृदयकमलविषे विराजमानहै,तिस हृदय आकाशविषे कुंडलिनीशक्तिसों स्वाभाविक वायु निकसती है, सो कोमल मृदुरूपहै,वही पवन निकसिकार दो रूप होताहै, एक प्राण अरु दूसरा अपान, सो अन्योन्य मिलिकार स्फूरणरूप होताहै,जैसे वृक्षकेत्र इलते हैं,तिसकार शीघ्रही अग्नि प्रगट होताहै,अरु बाँसोंके घर्षणेते अग्नि प्रगट होता है, तैसे प्राण अपानते अग्नि प्रगट होकार आकाशविषे उदय होती है, तब सर्व औरते प्रकाश होता है, जैसे सूर्य के उद्यहुए सर्व ओरते भुवन प्रकाशरूप होता है, तैसे सर्व ओरते प्रकाश होताहे, सूर्यरूप तारा अग्निवत् तेज आकार है, हृदयकमलका स्वर्णरूप भ्रमरा है, तिसके चितवनते योगीतद्त होते हैं, सो प्रकाशज्ञानरूप, तिस तेजसाथ योगकी