पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२१९

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( ११,०० ) योगवासिष्ठ । सो बुद्धिमानोंकर भी नहीं पायाजाता, तम अरु प्रकाश दोनों रूपोंकार युक्त है, इनके मध्यविषे जो संधि है, सो आत्मरूप है, तिसविवे स्थित होउ, चेतन अरु जड़ दोनों रूपोंकारकै भूत ऊरण होते हैं, जैसे दिन अरु रात्रि तम अरु प्रकाश कारकै पृथ्वीविषे चेष्टा करते हैं, चेतन अरु जड़रूप सूर्य अरु चंद्रमा दोनों रूपकारकै युक्त हैं, निर्मलरूप जो प्रकाश चिनूप हैं, तिसका नाम सूर्य है, अरु जडात्मक तमरूप है, सो चंद्रमाका शरीर है, जब निर्मल चेतनरूप सूर्य आत्माका दर्शन होता है। तब संसारका दुःखरूपजो तम है सो नष्ट होता है, जैसे बाह्य आकाश विषे सूर्य उदय हुएते श्याम रात्रिका तम नष्ट हो जाता है, अरु जड़ चंद्रमारूप जो देह है, जब तिसको देखता है, तब चेतनरूप सूर्य नहीं भासता, असत्यकी नाईं हो जाता है, अरु चेतनकी ओर देखता है, तब देह नहीं भासता, केवल लक्षविषे दूसरेकी उपलब्धि नहीं होती, केवल चेतनपको प्राप्त हुएते द्वैतते रहित निवणभाव होता है, अरु जडभाव- को प्राप्त हुए चेतन नहीं भासता, ताते संसारके दर्शनका कारण दोनों हैं, सूर्यचेतनकरि चंद्रमाजडकी उपलब्धि होती है, अरु जड चंद्रमाकार सूर्यचैतन्यकी उपलब्धि होती है, जैसे दीपक, अग्निका अंधकारविना प्रकाश नहीं होता, तैसे इन दोनोंविना आत्माकी उपलब्धि नहीं होती, अरु प्रकाशविना केवल जडकी उपलब्धि भी नहीं होती, जैसे सूर्यको प्रतिबिंब कंधेके ऊपर प्रकाशता है सो कंध प्रकाशकरि भासता है, अरु प्रकाश कंधकार भासता है, तैसे चित्त फुरता है, तब चेतनको जगत भासता है, अरु फुरणा जगत्कार होता है, औरणेते रहित अचैत्य चिन्मात्र निर्वाण होता है। ताते हे रामजी। जगत्को अग्नि अरु सोम जानो, देहदेहविषे संबंध है, परंतु जिसका अतिशय होवे तिसका जय होता है, प्राण अग्नि उष्णरूप है, अरु अपान शीतल चंद्रमारूप है, प्रकाश अरु छायारूप है, इनको जानना सुखका मार्ग है, ।। हे.रामजी ! जब बाह्यसौं शीतलरूप अपान अंतरको आता है, तब उष्णरूप प्राणविघे जाय स्थित होता है, अरु जो हृदयस्थानस निकसकरि प्राण उष्णरूप बाह्यको द्वादश अंगुलप-