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राघवविश्रांतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६.
पंचमः सर्गः ५.

राघवविश्रांतिवर्णनम् ।

राम उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! मैं परम स्वस्थताको प्राप्त भया हौं, अब अपने आपविषे स्थित हौं, अरु तुम्हारे वचनोंकी भावनाकार जगत्जाल स्थित हुवे भी मुझको शांत होगई हैं, अरु आत्मानंदकारि तृप्त भया हौं, जैसे बड़ी वर्षाकार पृथ्वी तृप्त होती है, तैसे मैं कृप्त सम शीतल भया हौं, अरु प्रसन्नताको पाइकारे स्थित हौं, अरु सर्वं ओरते केवल आत्मरूप मुझको भासता है, नानात्वका अभाव भया है, जैसे कुहिडते रहित दिशा अरु आकाश निर्मल भासता है, तैसे सम्यक्ज्ञान करि मुझको शुद्ध आत्मा भासता है, अरु मोह निवृत्त हो गया है, मोहरूपी जंगलविषे तृष्णारूपी मृग था, अरु रागद्वेष आदिक धूर कुहिड़ थी, सो सब निवृत्त हो गई हैं, ज्ञानरूपी वर्षाकार सब शांत हो गये, अब मैं आत्मानंदको प्राप्त भया हौं जो आदिअंतते रहित हैं, अरु अमृत है, अमृतका स्वाद भी तिसके आगे तुच्छ भासता है, ऐसे अपने आनंद स्वभावको प्राप्त भया हौं, मैं राम हौं. अर्थ यह कि, सबविषे रमणेहारा हौं, मेरा मुझको नमस्कार है, अब मैं सर्व संदेहते रहित हौं, सब संशय अरु विकार मेरे नष्ट भये हैं, जैसे प्रातःकालकरि निशाचर वैताल आदिक निवृत्त हो जाते हैं, तैसे मेरे रागद्वेषादिक विक्रारको अभाव भया है, निर्मल विस्तीर्ण हिमकी नाईं हृदयकमलविषे स्थित हौं, जैसे सँवरा फिरता फिरता कमलविषे आय स्थित होता है, तैसे मैं आत्मरूपी सारविषे स्थित हौं, अविद्यारूपी कलंक आत्माको कहा था, मैं तो निश्चय कार निर्मलताको प्राप्त भया हौं, जैसे सूर्यके उदय हुए तमका अभाव हो जाता है, तैसे मेरे संशय अरु अविद्या नाश भई है, सर्व आत्मा भासता है, अरु कलना कोई नहीं, भावित आकार अपने स्वरूपको प्राप्त भया हौं, पूर्व प्रकृतिको देखिकै हँसता हौं, कि क्या जानता था, अरु क्या करता था, मैं तौ नित्य शुद्ध ज्योंका त्यों आदिअंतते रहित हौं ॥ हे मुनीश्वर ! तेरे वचनरूपी अमृतके ससु-