पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२२०

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चिन्तामणिवृत्तांतवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११०१) र्यंत जाता है, तब अपान जो है, चंद्रमाका मंडल, तिसको प्राप्त होता है, सो अपान प्राणरूप होकार उदय होता है, अरु प्राण अपानंरूप होकार उदय होता है, जैसे दर्पणविषे प्रतिबिंब पडता है, तैसे इनका परस्पर आपसमें प्रतिबिंब पडता है, जहाँ षोडश कला चंद्रमाको सुर्य ग्रास लेता है, तिस मध्यभावविषे स्थित होउ, जब अपने प्राणोंके स्थानविषे आनि स्थित होता है, अरु प्राणरूप होकार हृदयनहीं भया, सो शांतिरूप भाव है, तिसविषे स्थित होउ, अरु प्राण निकसिकार सुखसों द्वादश अंगुलपर्यंत जब बाह्य स्थित होता है, अरु जबलग अपान भावको प्राप्त होकारै उदय नहीं भया, वह जो मध्यभाव है, तिसीविषे स्थित होउ, अरु मेष आदिक जो द्वादश राशिहैं, तिस एकको त्यागिकार दूसरी राशिको संक्रांति नहीं प्राप्त,भई, तिसका नाम संक्राति है, तिनके मध्यविषे जो संधि, तिसका नाम पुण्यकाल है, सो पुण्यसमय अंतर अरु बाह्य प्राण अपानकी संधिके समयमें तृणवत है, अरु तिन संक्रांतिविघे जो वृषवती संक्रांति वैशाखकी है, जो शिवरात्रि चैत्रकी संक्रांति त्रयोदश दिन होती है, अरु अस्तकी संक्रांति त्रयोदश दिन इनका नाम वर्षवती है, जहाँ दिन अरु रात्रि सम होत हैं, दक्षिणायन अरु उत्तरायणकी जो संधि होत है, इनके अंतर अरु बाह्य मेदको जाने, तब जन्मते रहित परमबोधको प्राप्त होवे । हे रामजी ! उत्तरा- यण मार्ग योगीश्वरोका है, सो क्रमकार मुक्त होत हैं, अरु दक्षिणायन मार्ग कर्म करनेवालोंका है; तिसकार बहुरि संसारभागी होत हैं; तिनके मध्यविषे जो संधि है, तिसविषे स्थित हुएते परपमदको प्राप्त होते हैं । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अग्निसोमविचारयोग नाम अङ्घषष्ठितमः सर्गः ॥ ६८ ॥ नवषष्टितमः सर्गः ६९. चिंतामणिवृत्तान्तवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच॥हे रामजी। यह सर्व कला योगकी विस्तार कारकै कही है, अरु उत्तम प्रभाव तामें वर्णन भया है, अरु प्रयोजन यही है, जो =