पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२२१

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(११०२) योगवासिष्ठ। निर्वाणपदमें स्थित होवै, आत्मा ब्रह्मकी एकता होवै, जो बहुवारि जमा- दिकका दुःख न होवै, ब्रह्म चित् :सत् आनंद स्वभावमात्र है, जो एकवार तामें तद्भाव जो है, एकत्वभावसो होता है, तब सदैव वही भाव रहत है, अरु धनी शक्तिका होत है, अविद्या नाश हो जाती है, इस कार वही चूडाला रानी योगके अभ्यास अरु ज्ञानके अभ्याससों पूर्ण होत भई, तब सर्व शक्तिसों संयुक्त होइकार अरु अणिमा आदि। सिद्धिकी प्राप्ति होत भई, तब मध्यआकाशको उड़ी, एक दिशामें राजा शयन कर रहा था, अरु तामें अवकाश पाया, अरु मध्य आकाशके बहुत स्थानोंमें विचरत भई, अरु मध्य देवलोककेकालीरूप अरु अवि- युत् विलोचन अति चंचल धारिके गमन करत भई, अरुमध्यदिशाको जात भई, अरु मध्य देवलोक, अरु मध्य दैत्योंके, अरु मध्यराक्षसोंके अरु मध्य विद्याधरोंके अरु मध्य सिद्धोंके, अरु मध्य सूर्यलोकके,अरु मध्य चंद्रमालोकके, मध्य तारामंडलके, मध्य मेघमंडलके, अरु मध्य इंद्रलोकके गमन करत भई, तहां कौतुक देखकर बहुर अधोलोकमें आई, अरु मध्य समुद्रके प्रवेश कारकै बहुरि मध्य अग्निके प्रवेश करत भई, अरु मध्य पवनके पवनरूप होत भई, अरु मध्य नागलोकके कन्या विषे क्रीडा करत भई, मध्य वनोंके,मध्य पर्वतोंके, अरु मध्यभूतोंके,अरु मध्य अप्सराओंके अरु मध्य त्रिलोकीके विचरती भई, लीलाकरिके, एक क्षणमें तिसी स्थान आवत भई, जहाँ राजा शयन कर रहा था समीप राजाके शयनकारि रही; जैसे भंवरीभंवरा कमलिनीके मध्य शयन करतेहैं, अरु राजा तिसको न जानत भया, कि रानी गई थी अथवा न गई थी, बहुरे रात्रि व्यतीत भई, प्रातःकाल हुआ, अरु राजा स्नान- शाला में जायकार स्नान करत भया, अरु प्रवाह कर्म वेदोक्त हैं,सो करत भया, अरु रानी भी प्रवाहकर्म करत भई, अरु राजाको शनैः शनैः तत्त्वका उपदेश किया, जैसे पिता पुत्रको मिष्ट वाणीकार उपदेश करता है, अरु पंडितोंको कहत भई कि, राजाको तुमभी उपदेश करौ, कि यह जगत् स्वप्नवत् भ्रम है, अरु दीर्घ रोग है, दुःखका कारणहैं, सोआत्म- ज्ञान औषधते नाश होता है, अपर इसका औषध कोई नहीं, इसीप्रकार