पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चिन्तामणिवृत्तांतवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ११०३) आपभी राजाको उपदेश करे, अरु पंडित भी उपदेश करै परंतु राजा तिस ज्ञानको पावत न भया, अरु विक्षेपताविषे रहा, उत्तमपदमें विश्राम पावत न भया, जो अपना आप है, अरु कँवल चित्तरूप प्रत्यक् आत्मा हैं। राम उवाच ॥ हे महामुनिजी ! वह रानी तौ सर्वशक्तिसंपन्न भई थी, योगकलाविषे भी अति चतुर, अरु ज्ञानकलाविषे भी तनूप भई थी, अरु राजा भी अति भूढ़ न था, तिसको उसका उपदेश दृढ क्यों न होत भयो, अरु रानी भी तिसको प्रीतिकार उपदेश करती थी, वह कारण क्या था, जो अपने पदविषे स्थिति पावत'न भया । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जैसे अच्छिद्र मोतीविषे तागा प्रवेश नहीं करता, तैसे चुडालाका उपदेश राजाको न वेधत भया, सो जबलग आप विचार न करे, अरु तिसविर्षे दृढ अभ्यास न होवे, तबलग ब्रह्मा विचार न १९९६ उपदेश करै तब भी तिसको न वेधे, काहेते कि, आत्मा आपही करि जाना जाता है, अरू इंद्रियका विषय नहीं, जो अधिष्ठानरूप हैं, अरु स्वभावमात्र है, अरु आपही आपको देखता है, अरु किसी मन इंद्वियका विषय नहीं अरू सर्वका अपना आप है ॥ राम उवाच ।। हे भगवन् ! जब अपने आपकार देखता है, तब गुरु अरु शास्त्र उपदेश किसनिमित्त करते हैं ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । गुरु अरु शास्त्र जताय देते हैं कि, तेरा स्वरूप आत्मा है, परंतु इदंकारिकै नहीं दिखावते, अरु विचारनेत्रसों आपको आपही देखता है, विचारते रहित तिसको नहीं देख सकता, जैसे किसी पुरुषको चंद्रमा को सचक्षु दिखावता है कि, अमुक स्थानमें देख उदय है, जब वह सचक्षु होता है, तौ देखता है, अरु मंदृदृष्टि होता है, तब नहीं देखता, तैसे गुरु अरु शास्त्र आत्माका रूप वर्णन करते हैं, अरु लखावते हैं, जब वह विचार नेत्रसों देखता है, तब कहता है कि, मैं देखा, अरु अपरके दिखानेको योग्य होता है ॥ हेरामजी ! आत्मा किसी इंद्वियका विषय नहीं, जो अपना आप मूलरूप है, अझ इंद्विय कल्पित हैं, अरु जो तू कहै कि, तुम भी उपदेश इंद्रिय- कार करते हौ; तौ सर्व इंद्रियोंका विस्मरण करु, जो मूल अपना तुझे भासे, अरु अभाववृत्ति इंद्रियां किसीको तेरा अभाव न होवैगा ॥