पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२२३

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• (११०४ ) यौगवासिष्ठ । हे रामजी! इसीपर एक इतिहास क्रांतको है, सो श्रवण करु एक क्रांत था, उसके पास धन और अनाज भी बहुत था; परंतु कृपण था, किसीको देता कछु न था, अरु अपर धनकी तृष्णा करता है कि किस प्रकार चिंतामणि मेरे ताईं प्राप्त होवै, सदा यही वांछा करै, इसी वॉछाकार एक समय घरते बाहर निकसा, अरु पृथ्वीकी ओर देखता जावै, तब एक स्थान था, तही घास अरु भुस पडा था, तिसविषे एक कौडी दृष्टि पडी तब कौडीको उठाय लिया, बहुरि देखने लगा कि, कछु अपर भी निकसै तब दूसरी कौड़ी निकसी, इसप्रकार ढूंढते हुए दिन व्यतीत भए, तब चार कौडी निकसी, बहुरि अष्टनिकसी जब हूँढते वय दिन और व्यतीत भये, तब चिंतामणि चंद्रमाकी नाईं प्रगट देखा तब मणि लेकर अपने घर आया; अरु बडे हर्षको प्राप्त भया । हे रामजी । तैसे गुरु अरु शास्त्रोंकार तत्त्वमसि अहब्रह्मास्मिका पाना, सो कौडियोंका खोजना है अरु आत्मा चिंतामणिरूप है, परंतु जैसे कौडियाके खोजते चिंतामणि विना खोजे न पाई, तैसे गुरु अरु शास्त्रोंकार आत्मपद पाता है, गुरुशास्त्रोंविना नहीं पाता, धनकार तपकार कर्मकार आत्मा नहीं पाता, केवल अपने आपकार पाता है ॥ हे रामजी ! राजा शिखरध्वज चूडालाके पासते उठिकार स्रानको गया तब राजाके मनविषे वैराग्य उपजा कि, यह संसार मिथ्या है, बहुत भोग हम भोगे हैं, तौभी हृदयको शांति न भई, अरु इन भोगोंका परिणाम दुःखदायक है, जब मनविषे ऐसा विचार उपजा, तब राजाने गौ, पृथ्वी, स्वर्ण, मंदिर अरु अपर सामग्री बहुत दान करी, जेते कछु ऐश्वर्यके पदार्थ हैं, सो दान किये, ब्राह्मणोंको दिये अपर गरीब अतिथिको दिया, जैसे जैसे किसीका अधिकार देखा, तैसे दिया, अरु रानीने भी ब्राह्मणों मंत्रियोंको कहा कि, राजाको तुम यही उपदेश किया करौ, कि यह भोग मिथ्या हैं, इनविषे सुख कछु नहीं, अरु आत्मसुख बड़ा सुख है, जिसके पायेते जन्ममृत्युसों मुक्त होता है, इसीप्रकार राजा ब्राह्मणाँते श्रवण करे, अरु अपने मनविषे भी वैराग्य उपजा था, तब राजा कहत भया कि, इस संसारदुःखते मैं रहित होऊ, इस संसारमें बड़ा दुःख हैं, इसविषे