पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२२७

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( ११०८) योगवासिष्ठ । जिसकरि भर्तीको पाऊं मैं कामातुर भई हौं, बहुरि मनको कहने लगी। हे दुष्ट मन ! तू तौ सत्पदको प्राप्त भया था, तेरा भर्ता आत्मा है, अब तू मिथ्या पदार्थोकी अभिलाषा काहेको करता है, बहुरि कहने लगी, जबलग देह हैं, तबलग देहके स्वभाव भी साथ रहते हैं, जो मेरे ताई यह अवस्था प्राप्त भई है, तो भी मन चलायमान होता है, ताते इतर जीवकी क्या वाती करणी है, तब राणी मेघके स्थानोंको लंघ अरु महाबिजलीके स्थान लंचे बडे पर्वत अरु नदियोंको लंधी समुद्र भयानक स्थानोंको लंधी, अरु मंदराचल पर्वतके पास वनविषे आनि स्थित भई, अरु कहने लगी कि, मेरा भर्ता कहां है, बहुरि समा- धिविषे स्थित होकार देखा कि, अमुक स्थानमें बैठा है, तप कारकै महादुर्बल अंग हो गये हैं, अरु ऐसे स्थानविषे प्राप्त भया है, जहां अपर जीवकी गम नहीं, अरु महावैतालकी नई रात्रिको चला आया, ताते अज्ञान महादुष्ट है, जो ऐसा राजा तपको लगा है, स्वरूपके प्रमाद कारकै जड है, अब ऐसे होवै, जो किसी प्रकार अपने स्वरूपको प्राप्त होवे, परंतु मेरे इस शरीरकारकै ज्ञान इसको न उपजैगा. काहेते कि, राजाको प्रथम यह अभिमान होवैगा कि, मेरी स्त्री है, अरु बहार कहेगा, मैं इसहीके निमित्त राज्य छोडाहै, बहुरि मेरे तांई दुःख देनेको आई है, ताते अपर शरीर ब्रह्मचारीका घारौं ऐसे विचार कारकै शीत्रही ब्रह्म- चारीका शरीर धारत भई, जैसे जलका तरंग एक स्वरूपको छोडता है, अरु अपर हो जाता है, तैसे महासुंदर शरीरको धारिकरि एक ग्रिंठ पृथ्वीते ऊपर चलने लगी, अरु हाथविषे रुद्राक्षकी माला अरु कमंडलुको धारे, अरु मृगछालाको धारे, अरु मस्तकपर विभूति लगाई, जैसे सदाशिवके मस्तकपर चंद्रमा विराजता है, तैसे सुंदर विभूतिको लगाया, अरु श्वेतही यज्ञोपवीतको पाया, ऐसा चिह्न धारिकार चली, तब राजा देखि कार आगेते उठि खडा हुवा, अरु नमस्कार किया, फूल चरणोंपर चढाये, "अरु अपने स्थानपर बैठाया, अरु कहने लगा । हे देवपुत्र ! आज मेरे बडे भाग्य हैं, जो तुम्हारा दर्शन भयो । हे देवपुत्र ! तुम्हारा आना कैसे हुआ १ ॥ देवपुत्र उवाच ॥ हे राजन् ! हम बडे बडे पर्वत