पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १११०) योगवासिष्ठ । ज्ञानीका भी शरीरस्वभावनिवृत्त नहीं होता, परंतु एक भेद हैं, जब ज्ञान बान्को दुःख आय प्राप्त होताहैं, तब दुःख नहीं मानता, अरु जब सुख आय प्राप्त होता है, तब सुख नहीं मानता, हर्षवान नहीं होता, अरु जब अज्ञानीको दुःखसुख आय प्राप्त होता है, तब हर्षशोक करता है, जैसे श्वेत वस्त्रपर केसरका रंग शीघ्ही चढि जाता है, तैसे अज्ञानीको सुखदुःखका रंग शीघही चढि जाता है, अरु जैसे सोमके वस्त्रकोजलका स्पर्श नहीं होताहै, तैसेही ज्ञानवानको सुखदुःखका स्पर्श नहीं होता,अरु जिसके अंतःकरणरूपी वस्त्रको ज्ञानरूपी मोम नहीं चढा तिसके दुःख सुखरूपी जल स्पर्शकार जाता है, अरु ज्ञानवान् मोमवत् है, उसके अंतः करणको दुःखसुख नहीं होता, अज्ञानीको होता है, जो दुःखकी नाडी भिन्न हैं, अरु सुखकी नाडी भिन्न हैं, जब सुखकी नाडीविषे स्थित होता है, तब दुःख कोऊ नहीं देखता, जब दुःखकी नाडीविषे स्थितहोता है, तब सुख नहीं देखता, अज्ञानीको कोऊ दुःखका कोऊ सुखका स्थान है, अरु ज्ञानीको एक आभासमात्र दिखाईदेता है,बंधमान नहीं होता,जब लग इसको ज्ञानका संबंध है, तबलग दुःख निवृत्त नहीं होता, तब राजा नेकहा, वीर्य जो गिरता है, सो वीर्य कैसे निवृत्त होता है, तब देवपुत्रने कहा ॥ हे राजन् ! जब इसका चित्त वासनाकरिकै क्षोभवान् होता है, तब नाडी भी क्षोभ करती हैं, अरु अपने स्थानों को त्यागने लगती हैं, तब वीर्यवाली नाडीते स्वभाविकही वीर्य नीचेको चला आता है, बार राजाने कहा ॥ हे देवपुत्र । स्वाभाविक क्या कहिये । देवपुत्रने कहा हे राजन् ! आदि परमात्मशुद्ध चेतनविषे जो ऊरणा हुआ हैं, तिस क्षण मात्र शक्तिके उत्थानकारि आगे प्रपंच बनिगया हैं, तिसविषे आदि नीति हुई है, कि यह घट है, यह पट है, यह अग्नि है, इसविषे उष्णता है। यह जल है, इसविषे शीतलता है, तैसेही नीति है, जो वीर्य ऊपरते नीचेको आता है, जैसे पर्वतते पत्थर गिरता है, सो नीचको चला आता है तैसे वीर्य भी नीचेको आता है, तब राजाने प्रश्नकिया ॥ हे देवपुत्र ! इसको दुःख कैसे होता है, अरु सुख कैसे होता हैं, अरु दुःखसुखका अभाव कैसे होता है, तब देवपुत्रने कहा ॥ हे राजन् !जब यह जीव कुंडलिनी शक्ति-