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योगवासिष्ठ ।


द्रविषे मैं स्नान किया है, तिसकार अजर अमर आनंदपदको प्राप्त भयो हौं, अरु सूर्यते भी ऊंचे पदको प्राप्त भया हौं, अरु वीतशोक होकरि परमशुद्धता समता शीतलता अनुभव अद्वैतको प्राप्त भया हौं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे राघवविश्रांतिवर्णनं नाम पंचमःसर्गः५॥

षष्ठः सर्गः ६.

अज्ञानमाहात्म्यवर्णनम् ।

वसिष्ठ उवाच ॥ हे महाबाहो ! बार भी मेरे परम वचन सुन, तेरे हितकी कामना करिकै मैं कहता हौं, अब आत्मपदको तू प्राप्त भया है, परंतु बोधकी वृद्धिके निमित्त बहरि सुन, जिसके श्रवणकरि अल्पबुद्धि भी आनंदपदको प्राप्त होवै ॥ हे रामजी । जिसको अनात्मविषे आत्माभिमान है अरु आत्मज्ञान नहीं, तिसको इंद्रियारूपी शत्रु दुःख देते हैं, जैसे निर्बल पुरुषको चोर दुःख देते हैं तैसे अज्ञानीको इंद्रियां दुःख देती हैं, अरु जिसको आत्मपदविषे स्थिति भई है, तिसको इंद्रियां दुःख नहीं देती, जैसे हृढ राजाके शत्रु भी मित्र हो जाते हैं, तैसे ज्ञानवान्के इंद्रियगण मित्र होते हैं अरु जिसे पुरुषको देहविषे स्थित बुद्धि है, अरु इंद्रियोंके विषयकी सेवना करते हैं, तिसको बड़े दुःख प्राप्त होते । हैं ॥ हे रामजी ! आत्मा अरु शरीरको सम्बन्ध कछु नहीं, यह परस्पर विलक्षण स्वभाव है, तैसे तम अरु प्रकाश विलक्षण स्वभाव है, तैसे आत्मा अरु देहका परस्पर विलक्षण स्वभाव है, आत्मा सर्व विकारते रहित नित्य मुक्त है, अरु उद्य अस्तते रहित सबसों निर्लेप है, सदा ज्योंका त्यों प्रकाशरूप भगवान् आत्मा सत्रूप है, तिसका संबन्ध किससे होवै, देह जड अरु असत्य अज्ञानरूप तुच्छ विनाशी अकृतज्ञ है,तिसका संयोग किम भांति होवै, आत्मा चैतन्य ज्ञान सत् प्रकाशरूप है,तिसका देहसाथ कैसे संयोग होवै,अज्ञान करिकै देहअरु आत्माका संयोग भासताहै, सम्यक्ज्ञान करिकै संयोगका अभावभासता है हे रामजी!यह मैं निपुण वचन कहेहैं,तिनका वारंवार अभ्यास करेते संसारमोहकाअभावहो