पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३३

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(१११४) योगवासिष्ठ । राजन् । तैने त्यागकरिकै संता संग करना था, अरु यह प्रश्न करना था कि, हे भगवन् ! बंध क्या है, अरु मोक्ष क्या है, अरु मैं क्या हौं, यह संसार क्या है, अरु संसारकी उत्पत्ति किसक्रार होतीहै, अरुलीन कैसे होताहै, तैने यह क्या किया हैं, जो संतविना वनका ठूठ आयकारि सेवन किया है, अब तू संतजनको प्राप्त होकार निर्वासनिक होउ, ऐसे ब्रह्मादिकने भी कहा है कि, जब निवसनिक होता है, तब सुखी होता है, बहुरै राजाने कहा ॥ हे भगवन् तुमही संत हौ, अरु तुमही मेरे गुरु हौ, अरु तुमही मेरे पिता हौ, जिसप्रकार मेरे ताईंशांति प्राप्त होवे, सो कहौ, तब कुंभने कहा ॥ हे राजन् मैं तेरे ताई उपदेश करता हौं, तू हृदयविषे धारि लेहु, अरु जो तू हृदयविषे धारै नहीं, तौ मेरे कहने कार क्या होता है, जैसे टासपर कौआ होवे, अरु शब्द भी श्रवण करे, तो भी अपने कौए स्वभावको नहीं छोडता, तैसे जो तू भी कौएकी नाई होवै, तौ मेरे कहनेका क्या प्रयोजन हैं, अरु जैसे तोते पक्षीको जो कहता है, सो ग्रहण करता हैं, ताते तोते पक्षीकी नाईं होउ, तब शिखरध्वजने कहा । हे भगवन् ! जो तुम आज्ञा करौगा, सो मैं कराँगा, जैसे शास्रवेदके कहे कम करता हौं, तैसेही तुम्हारा कहना कराँगा, यह मेरा नियम है,जो तुम आज्ञा करौ सो मैं कराँगा तब देवपुत्रने कहा ॥ हे राजन् । प्रथम तौ तू ऐसे निश्चय कर कि, मेरा कल्याण इन वचनोसों होवैगा, अरु ऐसे जान कि, जो पिता पुत्रको कहता है, शुभही कहता है, तैसे मैं जौ तेरे ताई कहौंगा सो शुभही कहौंगा, अरु तेरा कल्याण होवैगा, ताते निश्चय जान कि,इन वचनोंकार मेराकल्याण होवैगा,ताते एक आख्यान आगे व्यतीत भया है सो श्रवण करु ॥ एक पंडित था, सो धन अरु गुणकारि संपन्न था,अरु सर्वदा चिंतामणि पानेकी इच्छा करता था,जैसे शास्रकार उपाय कहे, तैसेही उपायकरता था, जब केतक काल व्यतीत भया; तब जैसे चंद्रमाका प्रकाश होता है, तैसे प्रकाशवान् चिंतामणि आय प्राप्त भया, ऐसे निकट जाना कि, हाथकार उठाइलीजै, जैसे उदायाचल पर्वतके निकट चंद्रमा उदयहोताहै, तैसेचितामणि निकट आय प्राप्त भया, तब पंडितके मनविषे विचार हुआ कि, यह चिंतामणि है,