पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३४

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चिन्तामणिवृत्तान्तवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१११५) अथवा कछु और है, जो चिंतामणि होवे, तौ उठाइ लेउँ जोचिंतामणि न होवै तौ किसनिमित्त पकड़ौं, बहुरि कहै, पकड़ लेता हौं, मणिही होवैगा, तब मणि न होवै क्या पकडौं, यह मणि नहीं काहेते कि, मणि बडे यत्नकार प्राप्त होता है, मेरे ताईं सुखेन क्या प्राप्त होना है, इसते जानाजाता है कि, चिंतामणि नहीं, जो सुखेन प्राप्त होता होवै, तौ सब लोक धनी हो जावें, परंतु सुखेन नहीं पाता, ताते यह चिंतामणि नहीं, जब ऐसे संकल्पविकल्पकार पंडित विचार करने लगा, अरु इसीकार तिसका चित्त आवरण भुया, तब मणि छपन हो गया, काहेते जो सिद्धि है, तिनका मान आदर न कारयेतौ उलटा शाप देती है, जिस वस्तुका आवाहन करता है, तिसका पूजन न करिये तो त्याग जाती है; अरु शाप देती है, जब वह चिंतामणि अंतर्धान हो गई तब वह बडे दुःखको प्राप्त भया कि, चिंतामणि मेरे पासते निवृत्त होगई, अरु बहुरि यत्न करने लगा, जब बहुरि उपाय किया, तब काचकी मणि किसीने हाँसीकार तिसके आगे डारिई, सो तिसके पास आय पड़ी, उसको देखत भया, देखिकर कहने लगा कि, यह चिंतामणि हैं, तब उसको उठाय लीनी, लेकर अपने घर आया, अबोधके वशते उसको चिंतामणि जानत भया, जैसे मोहकार असत्को सत् जानता है. अरु रज्जुको सर्प जानता अरु जैसे दो चंद्रमा, अरु शत्रुको मित्र अरु विषको अमृतरूप जानता है, तैसे वह काचको चिंतामणि जानत भयो, अरु जेता कछु अपना धन था, सो लुटाय दिया, अरु कुटुंबका त्याग किया, कहने लगा कि, मेरे ताई चिंतामणि प्राप्त भई है, अब कुटुंबसाथ क्या प्रयोजन है, अरु घरते निकसिकार वनको गया, वनविषे जाय बड़े दुःखको प्राप्त भया कि, काचकी मणिसाथ कछु प्रयोजन सिद्ध न हुआ, तैसे हे राजन् ! जो वि द्यमान वस्तु होवै, तिसको मूर्ख त्यागते हैं, तिसका माहात्म्य नहीं जानते, अरुनहीं पाते ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे चिंतामणिवृत्तातवर्णनं नामैकोनसप्ततितमः सर्गः ॥ ६९॥