पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १११६) योगवासिष्ठ । सप्ततितमः सर्गः ७०. हस्त्याख्यानवर्णनम् । देवपुत्र उवाच ॥ हे राजन् ! इसीपर एक अपर आख्यान कहता हौं, सो श्रवण करु, मंदराचल पर्वतके वनविषे एक हस्ती रहता था, सो सर्व हस्तीका राजा था, कैसा था सो मानो मंदराचल पर्वत गस्त्य मुनिने रोका था ! ऐसा जो मंदराचल पर्वत है, तिसविषे रहता था, अरु जिसके बड़े देत हैं, इंद्रके वज्रकी नाईं तीक्ष्ण हैं, बडा बलवान् अरु प्रकाशवान जैसे प्रलयकालकी वडवाप्ति होती है, ऐसा प्रकाशवान् अरु बलवान ऐसा जो सुमेरुपर्वत उसको दंतसाथ उठावै, तिस हस्तीको महावनते बल छल कारकै बाँधा, जैसे बलि राजाको विष्णु भगवान्ने बांधा, तैसे लोहकी संकरसो हस्तिको पाय,अरु आप महावत जो निकट वृक्ष था,तिसपर चढिबैठा,किसनिमित्त बैठाथा कि,कूदकर हस्तीके ऊपर चढि बैठों, अरु हस्ती संकर कार महाकष्टको प्राप्त भया, कैसे दुःखको प्राप्त भया जो वाणीकार कहा नहीं जाता जब ऐसा दुःख पाया तब हस्तीके मनविषे विचार उपजा कि; अबमैं बलसाथसंकर न तोडौंगा, तौ कब छूटौंगा, तिस संकरको बलकारकै तोडिदिया, अरु वृक्षपर जो महावत बैठा था, सोगिरा, सोहस्तीके चरणों आगे आय पड़ा, अरुभयको प्राप्त भया, जैसे फल पवनकार गिरपड़ता है, तैसे महावत भयकर गिरपड़ा, जब इसप्रकार महावत गिरा, तब हस्तीने विचार किया कि, यह मृतकसमान है, ताते मुयेको क्या मारना है, यद्यपि मेरा शत्रु है, तो भी मैं नहीं मारता, इसके मारणेकार मेरा क्या पुरुषार्थ सिद्ध होता है, ताते मैं नहीं मारता. हे राजन् ! जब ऐसे दयाकार हस्तीने महावतको न मारा, जो पशुयोनिविषे भी दया मुख्य है, तब महावतको छॉडिकार हस्ती वनविषे चला, जैसे पाणी बंधको तोडकरि वेगसाथ चलता है तैसे संकरको तोडिकर हस्तीवनको गया, जैसे स्वर्गके द्वारे तोडकारि दैत्य जाय प्रवेश करते हैं. वैसे संकरको तोडकार हस्ती वनविषे जाय प्रवेश किया,अरु हस्तीको गया देखि महावत जो पड़ा था सो उठबैठा, अरु अपने स्वभावविषे स्थित