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अज्ञानमाहात्म्यवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

जावैगा, जब संसारका कारण मोह निवृत्त हुआ, तब बहुरि सद्भाव न होवैगा, जबलग अज्ञानरूपी निद्राते दृढ़ होकरि नहीं जागता, तबलग बहुरि आवरण हो जाता है, जैसे निद्राके जागेते बहुरि निद्रा घेर लेती है, जब दृढ़करि जागै तब बहुरि नहीं घेरती, तैसे दृढ़ अभ्यासकरि अज्ञान निवृत्त हुआ बहुरि आवरण न होवैगा, तातै मोहदुःख निवृत्तिके अर्थ दृढ़ अभ्यास करहु॥ हेरामजी। आत्मा देहके गुणको अंगीकार नहीं करता, जब देहके गुण अंगीकार करै, तब आत्मा भी जड़ हो जावै, सो तौ सदा ज्ञानरूप है, अरु जो देह आत्माका गुण परमार्थते अंगीकार करै, तौ देह भी चेतन हो जावै, सो तौ जडरूप है, इसको अपना ज्ञान कछु नहीं, जब ज्योंका त्यों इसका ज्ञान होवै, तब शरीर तुच्छ जड़ भासै॥ है रामजी। देह अरु आत्माका संयोग संबंध कछु नहीं, अरु समवाय संबंध भी नहीं, बहुरि इससे मिलकरि वृथा दुःखोंको ग्रहण करना, इसते अपर मूर्खता क्या है, यही मूर्खता है, जब कछु भी इसका समान लक्षण होवै; तब संबंध भी होवै, जिनका समान लक्षण कछु न होवे, तिनका संबंध कैसे होवै, आत्मा चेतन है, देह जड़ है, आत्मा सत‍्‍रूप है, देह असत‍्‍रूप है, आत्मा प्रकाशरूप है, देह तमरूप है। आत्मा निराकार है, देह साकार है, आत्मा सूक्ष्म है, देह स्थूल है, बहुरि आत्मा अरु देहका संबंध कैसे होवै, जब संयोग नहीं, तब दुःख किसका होवै, जैसे सूक्ष्म अरु स्थूलका संयोग नहीं होता, जैसे दिन अरु रात्रिका संयोग नहीं होता, जैसे ज्ञान अरु अज्ञानका संयोग नहीं होता, जैसे धूप अरु छायाका मिलाप नहीं होता, जैसे सत् अरु असत‍्का संयोग नहीं होता, तैसे आत्मा अरु देहका संयोग नहीं होता, अज्ञानकरिकै तत्त्वरूप मिले हुए भासते हैं, परंतु संबंध कछु नहीं, जैसे वायु अरु आकाशका संयोग नहीं होता, तैसे इनका संयोग नहीं होता; देहके सुखदुःखकार आत्माको सुखी दुःखी जानना मिथ्या भ्रम है, जरा मरण सुखदुःख भाव अभाव आत्माविषेरंचकमात्र भी नहीं, जब देहविषे अभिमान होता है, तब ऊंच नीच जन्मको पाता है, वास्तवते कछु नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, तिसविषे विकार