पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४०

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शिखरध्वजसर्वत्यागवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११२१ ) महावत छोटा बली था, तिस अज्ञानरूपी महावतको मूर्खता कारकैन मारा, तिस कारकै दुःख पाता है ताते तू वैराग्यविवेकरूपी दंतकरि आशारूपी फांसीको तोड, तब सब दुःख सिटि जावेंगे ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे हस्तिवृत्तांतवर्णनं नाम एकसप्ततितमः सर्गः ॥७१॥ डिसप्ततितमः सर्गः ७२. शिखरध्वजसर्वत्यागवर्णनम् । देवपुत्र उवाच ॥ हे राजन् ! ऐसी जो तेरी स्त्री चुडाला ब्रह्मवेत्ता थी, अरु सर्वज्ञान श्रेष्ठ साक्षात् ब्रह्मस्वरूप अरु सत्यवादी, तिसने तेरे ताई उपदेश किया; अरु तैने तिसके वचनोंका निरादर किस निमित्त किया, मैं तौ सर्व जानता हौं, जो त्रिकालज्ञ हौं, तो भी तूअपने सुखते कडु किं, तिसकाउपदेशअंगीकार क्यों न किया, एकतौ यह मूर्खता करी कि, उपदेश न अंगीकार किया, अरु दूसरी यह मूर्खता है कि, सर्वं त्याग न कारेकै बरि वन अंगीकार किया, जो त्याग करता तौ सर्व दुःख मिटि जाते, जब ऐसे देवपुत्रने कहा, तब राजा कहत भया । हे देवपुत्र ! मैं तौ सर्व त्याग किया है, स्त्री पृथ्वी मंदिर हस्ती इत्यादिक जो ऐश्वर्य अरु कुंटुब हैं, सो सर्व त्याग किया है, तुम कैसे कहते हौ कि, त्याग नहीं किया, तब देवपुत्रने कहा ॥ हे राजन् ! तैने क्या त्यागा है, राज्यविषे तेरा क्या था, जैसे ऐश्वर्य आगे थी, तैसे अब भी है, अरु स्त्रियां भी जैसे अपर मनुष्य थे, तैसे स्त्रियां थी, तिनविषे तेरा क्या था, जो त्याग किया, पृथ्वी, मंदिर अरु हस्ती जैसे आगे थे, तैसे अब भी हैं, तिनविषे तेरा क्या था जो त्याग किया है । हे राजन् ! सर्व त्याग तैंने अब भी नहीं किया, जो तेरा होवे, तिसका तू त्याग कर, जो निदुःख पदको प्राप्त होवै ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! जब इसप्रकार देवपुत्रने कहा तब सुरवीर जो इंद्रियजित राजा था, सो मनविषे विचारत भया कि, यह वन मेरा, है, अरु वृक्ष फूल फल मेरे हैं, इनका त्याग करौं, अरु कहत भया ॥ हे देवपुत्र । वन अरु वृक्ष फूल