पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४२

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शिखरध्वजसर्वत्थागवर्णन-निवाणप्रकरण ६. (११२३ ) विषे फूल फल राखते हैं, अब इनका त्याग करौं तब राजाने कहा ॥ हे भगवन् ! आसन अरु बासन यह मेरे पास रहते हैं, इनका भी त्याग किया, क्यों अब तौ सर्व त्यागी भया ? तब कुंभने कहा ॥ हे राजन् ! अब भी सर्व त्याग नहीं भया, आसन तौ भेडकी ऊनका है, अरु बासन मृत्तिकाके हैं, इनविषे तेरा कछु नहीं, जो कछु तेरा हैं, तिसका त्याग कर, जो सर्व त्याग होवे, अरु दुःख निवृत्त हो जावै ॥ हे रामजी । जब इसप्रकार कुंभने कहा, तब राजा उठि खडा हुआ, अरु वनकी लकडी इकट्ठी करी, अरु अग्नि लगाई, जब बडी अग्नि लगी, तब लाठीको हाथविषे लेकर कहने लगा ॥ हे लाठी। मैं तेरेसाथ बहुत देशोंका पर्यटन किया है, परंतु मेरे साथ उपकार कछु न किया अब मैं कुंभ मुनिकी कृपाते तराँगा, तेरे नमस्कार है, ऐसे कहकार लाठीको अशिविषे डार दिया बहुरि मृगछालाको हाथविषे लेकर कहा ।। हे मृगकी त्वचा ! बहुत काल मैं तेरे ऊपर आसन किया है, परंतु तुझने उपकार कछु न किया, अब कुंभ मुनिकी कृपासों मैं तरौंगा, तेरे ताई नमस्कार है, ऐसे कहिकरि मृगछालाको अग्निविषे डारि दीनी, बहुरि कमंडलुको लेकर कहने लगा हे कमंडलु ! धन्य है, मैं तेरे ताईं धारा अरु तुझने मेरे जलको धारा तैंने मुझसे गुण कोप नहीं किया, तो भी कमंडलुकी जैसे प्रवृत्ति त्यागनी है, तैसे निवृत्तिकी कल्पना भी त्यागनी है, ताते तेरेको नमस्कार है, तुम जावहु, ऐसे कहकार कमंडलु भी अग्निविषे जलाय दिया ॥ बार मालाको हाथविषे लेकर कहने लगा ॥ हे माला ! तेरे मणके जो मैं फेरे हैं, सो मानो अपने मैंने जन्म गिने हैं, तेरे संबंधकार जाप किया है अरु दिशा विदिशा गया हौ, अब तेरेको नमस्कार है, ऐसे कहिकार मालाको भी अग्निविधे डारि दीनी इसीप्रकार फल फूल कुटी आसन सब जलाय दिये, बड़ी अग्नि जागी, अरु बड़ा प्रकाश भया, जैसे सुमेरु पर्वतके पास सूर्य चढे, अरु मणिका भी चमत्कार होवै तौ बड़ा प्रकाश होता है, तैसे बड़ी अग्नि लगी, अरु राजाने संपूर्ण सामग्रीका त्याग किया, जैसे पके फूलको वृक्ष त्यागता है, जैसे पवन चलनेते ठहरता है, तब धूडते रहित