पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४३

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(११२४) । योगवासिष्ठ । होता है, तैसे राजा सर्व सामग्रीको त्याग निर्विघ्न हुआ, अरु सर्व सामग्री अशिविषे डारी, अरु अग्निरूप होत भई; जैसे नदियां समुद्रविषे जाय समुद्रूप होती हैं, तैसे सब सामग्री अग्निरूप होत भई ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजसर्वत्यागवर्णनं नाम द्विसप्ततितमः सर्गः ॥ ७२ ॥ त्रिसप्ततितमः सर्गः ७३. चित्तत्यागवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब संपूर्ण सामग्री जलाई, अरुभस्म हो गई, जैसे सदाशिवके गणने दक्षप्रजापतिके यज्ञको स्वाहा कर दिया था। तैसे जेती कछु सामग्रीथी, सो सब स्वाहा हो गई अरु वन बड़ा प्रज्वलित भया, जेते कछु वृक्षके रहनेवाले पक्षी थे, सोभाजि गए, अरु मृग, पशु कई आहार करते, कई जुगली करते थे, सब भाजि गये, जैसे पुरको आग लगेते पुरवासी भाजि जावें, तैसे भाजि गये, तब राजा मनविषे विचारत भया कि, कुंभकी कृपाते मैं बड़े आनंदको प्राप्त भया । अब दुःख मेरे मिटि गये हैं, जती कछु वस्तु मनके संकल्पकार रची थी, जो मेरी हैं सो जलाय दी तिसका न मेरे ताईं हर्ष है, न शोक है, जेते कछु दुःख होते हैं, सो ममत्वकार होते हैं, सो मेरा ममत्व अब किसीसे नहीं रहता, ताते हुःख भी कोई नहीं, अब मैं ज्ञानवान् भया हौं, अब मेरी जय है, अब निर्मल भया हौं, अरु सर्व त्याग किया है, ऐसे विचार करेकै राजा उठि खड़ा हुआ, हाथ जोड कहत भया ।। हे देवपुत्र ! क्यों अब में सर्व त्याग किया है, जो आकाशही मेरे वस्त्र हैं, अरु पृथ्वी मेरी शय्या है, जब राजाने ऐसे कहा, तब कुंभमुनिने कहा ॥ हे राजन् ! अब भी सर्व त्याग नहीं किया, जो तेरा है, तिसका त्याग करु, तब दुःख तेरे निवृत्त हो जावें; बहुरि राजाने कहा ॥ हे भगवन् ! अब तौ अपर मेरे पास कछु नहीं रहा, नंगा होकार तुम्हारे आगे खड़ा हौं, अब एक इंद्रियोंका धारणहारा रक्त मांसका देह है जो कहौ, तौ इसका भी