पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४४

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चित्तत्यागवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. ( ११२५ ) त्याग करौं, पर्वतके ऊपर जायकार डारि देऊ, ऐसे कहिकरि राजा पर्वतको दौडा कि, देहको डारि देऊं, तब कुंभ मुनिने कहा ॥ हे राजा ! ऐसे पुण्यदेहको क्यों त्यागता है, इसके त्यागेते सर्व त्याग नहीं होता। जिसके त्यागनेते सर्व त्याग होवै, तिसका त्याग करु, इस देहविषे क्या दूषण है; जैसे वृक्षसार्थ फूल फल होते हैं, जब वायु चलता है, तब फूल फल गिरते हैं, सो फूल, फल गिरनेका कारण वायु है, वृक्षविषे दूषण कछु नहीं, तैसे देहविषे दूषण कछु नहीं, जो देहका पालनेहारा अभिमान हैं, तिसका त्याग करु, जो सर्व त्यागसिद्धि होवे, अरु देह तौ गुण है, जो कछु इसको देता है, सोई लेता हैं, आपते बोलता नहीं, जड़ है, इसके त्यागते क्या सिद्ध होता है, जैसे पवनकारे वृक्ष हिलता है, अरु भूकंपकार पर्वत कँपते हैं, तैसे देह आप कुछ नहीं करता, अपरकी प्रेरी चेष्टा करता है, जैसे पवनकार समुद्रविषे तरंग होते हैं, अरु तृणको जहाँ जल ले जाता है, तहां चले जाते हैं, तैसे देह आपते कछु नहीं करता, इसका जो प्रेरणेवाला है, तिसकार चेष्टा करता है, ताते देहके प्रेरणेवालेका त्याग करु जो सुखी होवै ॥ हे राजा ! जिसकार सर्व है, अरु जिसविषे सर्व शब्द है, अरु जो सर्व औरते त्यागने योग्य है, तिसका त्याग कर कि, तेरे सर्व दुःख मिटि जावें, तब राजाने कहा ॥ हे भगवन् ! वह कौन है जो सर्व है, अरु जिसविषे सर्व शब्द है अरु जो सर्व ओरते त्यागने योग्य है ।। हे तत्त्ववेत्ताविषे श्रेष्ठ ! जिसके त्यागेते जरा मृत्यु नष्ट हो जावै सो कहौ; तब कुंभने कहा हे राजा ! जिसका नाम चित्त है. अरु प्राण है, अरु देह है, ऐसा जो चित्त है, तिसका त्याग कर, अरु बाहर जो नानाप्रकारके आकार दृष्टि आते हैं, सो चित्तही कार दृष्ट आते हैं ताते चित्तका त्याग करु ॥ हे राजा ! जैसे सर्प खुदविषे बैठा हो तो खुदका दूषण कछु नहीं विष सर्पविषे है, जिसकार डसता है, तिसके नाश करने का उपाय करु, अरु सर्व शब्द भी इस चित्त विषे है, अरु आत्मा है, जो मात्रपद है, जिसविषे न एक कहना है, न द्वैत कहना है, अरु सर्व ओरते इसी चित्तका त्याग करना योग्य है, जब इस चित्तका त्याग करेगा, तब त्यागरूपी अमृतकार अमर हो जावैगा, अरु ज़रा मृत्युते रहित