पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४७

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(११२८) योगवासिष्ठ । नष्ट होगा, तब देहते रहित होवैगा देहके नष्ट हुए चित्त नष्ट नहीं होता, अरु चित्तके नष्ट हुए देह नष्ट होजाता है, जब चित्तरूपी धूडते रहित होगा, तब केवल शुद्ध आकाश होवैगा॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वायाप्रकरणे चित्तत्यागवर्णनं नाम त्रिसप्ततितमः सर्गः ॥७३॥ चतुःसप्ततितमः सर्गः ७४, || राजविश्रांतिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी जब इसप्रकार कुंभने कहा कि, चित्तका त्यागनाही सर्व त्याग है, तब शिखरध्वजने कहा, हे भगवन् ! मैं चित्तको स्थित कैसे करौं, संसाररूपी आकाशकी चित्तरूपी धूड है, अरु संसाररूपी वृक्षका चित्तरूपी वानर है, जो कबहूँ स्थित नहीं होता, ताते ऐसे चित्तको मैं कैसे स्थित करौं, तब कुंभने * कहा, हे राजन् ! चित्तका रोकना तौ सुगम है, नेत्रोंके खोलने अरु पूँदनेविषे भी कछु यत्न है; परंतु चित्तके रोकनेविषे कछु यत्न नहीं परंतु सुगम किसको है, जो दीर्घदर्शी हैं, अरु अज्ञानीको चित्तका रोकना कठिन है, जैसे चंडालको पृथ्वीका राजा होना कठिन है, अरु जैसे तृणको सुमेरु होना कठिन है, तैसे अज्ञानीको चित्तका रोकना कठिन है॥राजोवाच ॥ हे देवपुत्र चित्तका तोड़ना कठिन है, तौभी दूटि जाता है, परंतु मनका रोकना अति कठिन है, जैसे बड़े मच्छको बालक रोक नहीं सकता, तैसे मैं चित्तको रोक नहीं सकता ॥ हे देवपुत्र । तुम कहते हौ कि, मनका रोकना सुगम है, अरु मुझको ऐसे कठिन भासता है. जैसे मूर्ति लिखी हुई अंध पुरुषको नेत्रों से नहीं दृष्ट आती, तो वे हाथविषे कैसे लेवे, तैसे तिनको वश करना मेरे ताई कठिन भासता है प्रथम चित्तका रूप मेरे ताईं कहौ कि, क्या है ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! इस चित्तका रूप वासना है, जब वासना नष्ट होवै, तब चित्त नष्ट हो जावै, ताते चित्तका बीज तू नष्ट कर, तब चित्तरूपी वृक्षभी नष्ट होवै, न कोऊ टास रहै,न कोऊ फूल फल रहै, अरु जब टासको कार्ट