पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४८

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राजविश्रांतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११२९ ) गा, तब बहुरि होवैगा, टासके काटनेते वृक्ष नष्ट नहीं होता, बहुरि कई दास होते जब बीजको नष्ट करै, तब वृक्ष भी नष्ट हो जावै ॥ राजोवाच हे भगवन् ! संसाररूपी सुगंधि है, तिसका चित्तरूपी फूल है, अरु संसाररूपी तंतु है, तिसका चित्तरूपी भीह है, अरु देहरूपी तृण है, तिसके उठावने उडावनेवाला चित्तरूपी पवन है, अरु जरा मृत्यु अध्यात्मक अधिभूतक तेल हैं, तिनका यह तिल है, जिसते तेल उपजता है, अरु संसाररूपी अँधेरी हैं, तिसका यह चित्तरूपी आकाश है, जो आकाशविषे कई अँधेरियां होती हैं, अरु हृद्यरूपीकमलको चित्तरूपी सँवरा है, तिसका बीज भी कहौ, अरु टास भी कहौ, जो क्या है, अरु टासका काटना क्या है, अरु वृक्ष क्या है, अरु फूल फल क्या हैं, सो कृपाकार कहौ ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन्! चेतनरूपी क्षेत्र स्वच्छ निर्मल है, तिसविषे अहंभाव बीज है, इसीको अहंकार कहते हैं, अरु इसीको चित्त कहते हैं, इसीको मन कहते हैं, अरु इसीको जड़ कहते हैं, इसीको मिथ्या कहते हैं, तिस अईविषे जो संवेदन है, सोई देह इंद्रियां हो पसरी हैं, तिसविषे जो निश्चय है सो बुद्धि हैं, तिस बुद्धिविषे जो निश्चय है, यह मैं हौं, यह संसार है, सोई जीव अहंकार है, अहंकार इस वृक्षका बीज है, अरु वासना इस चित्तरूपी वृक्षके टास हैं, अरु सुखदुःख इस चित्तरूपी वृक्षके फल हैं ॥ हे राजन् ! इसका जो काटना है, सो सुन, एकांत बैठिकार चितवनाते रहित होना, एक आश्रयको त्यागिकार दूसरेका अंगीकार करना, इसप्रकार स्थित होना कि, मैं ऐसा त्यागी हौं, इसका चितवना यही दासको काटना है ॥ हे राजन् ! इस टासके काटेते वृक्ष नष्ट नहीं होता, काहेते जो ऐसा होकार स्थित होना, जो मैं हौं, अरु वासना त्याग करे, कछु फुरै नहीं, जब अहंरूपी बीज नष्ट हो जाता है, तब चित्तरूपी वृक्ष नष्ट हो जाता है, काहेते कि, इसका बीज अहं है, जब अहंभाव बीज नष्ट हुआ तब वृक्ष भी नष्ट होजाता है, ताते चित्तका बीज तू नष्ट कर ॥ राजोवाच ।। हे देवपुत्र ! तुम्हारा निश्चय मैं यहां जाना है कि, चित्तके त्यागते चित्तका बीज न करना श्रेष्ठ है। हे भगवन् । एता काल मैं टास काटत