पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२४९

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(११३०) योगवासिष्ठ । । रहा हौं, इसीते दुःख मेरे नष्ट नहीं भयेअरु तुमने कहा कि, अहही दुःख दायी है,सो अहंका उत्पन्न होना कैसे होता है? ॥ कुंभ उवाच॥ हे राजन् ! शुद्ध चेतनविषे जो चैत्योन्मुखत्व अहंका ऊरणा कि, मैं हौं, सो दृश्यरूप हुआ है, मिथ्या संवेदनकरके हुआ है, जैसे शांत समुद्रविषे पवनकारकै लहरी तरंग होते हैं, तैसे शुद्ध आत्माविषे अहं फुरणा है, तिस कारकै संसार हुआ है, ताते अहंभावको नष्ट करु, जो शांतिपदविषे स्थित होवे, जो दुःखदायक वस्तु है, तिसको नष्ट करै सो शांत होवै ॥राजोवाच । हे भगवन् ! वह कौन वस्तु है, जो जलावने योग्य है, अरु वह कौन अग्नि है, जिसविषे जलती हैं ॥ कुंभ उवाच ॥ हे त्यागवाविषे श्रेष्ठ राजा ! तेरा जो अपना स्वरूप हैं, तिसका विचार कर कि, मैं क्या हौं, यह संसार क्या है, इसका दृढ विचार करना सोई अग्नि हैं, अरु मिथ्या अनात्मा जो देह इंद्रियादिकविषे अहंभाव है, तिसको वास्तवरूप विचार अग्निकार जलावहु, जब विचार अग्निकारकै अहंकार बीजको जलावैगा, तब केवल चिन्मात्र होवैगा ॥ हे राजा ! मेरे उपदेशकारिकै तू आपको क्याजानता भया,सो मेरे ताई कहौ,तब राजाने कहा मैं राजा भी नहीं अरु पृथ्वी भी मैं नहीं,अरु पर्वत भी मैं नहीं,अरु आकाश भी मैं नहीं, अरु दशों दिशा भी मैं नहीं,अरु मैं रुधिरमासकी देह भी नहीं,अरु कर्मइंद्रियां, ज्ञानइंद्रियां भीनहीं,अरु मन बुद्धि भी मैं नहीं, अरु मैं अहंकार भी नहीं, इनते रहित शुद्ध आत्मा हौं, परंतु हे भगवन् । अहंरूपी कलंकता मेरे ताई कहाँते लगी है, तिस कलंकके दूर करणेको मैं समर्थ नहीं, तब कुंभने कहा ॥ हे राजा ! इसी अहंका त्याग करु, कि मैंत्याग किया है, यह ऊरणा भी न फुरै, शून्य हो रहु, जब इसका त्याग करेगा तब चेतन आकाश होवैगा ।। हे राजा १ तू अपने स्वरूपविषे जानकार देख कि, कौन है, तब राजाने कहा ॥ हे भगवन् ! मैं यह जानता हौं कि, मेरा स्वरूप आत्मा है, सो सर्वका आत्मा है, अरु मैं आनंदरूप हौं,सर्व मेरा प्रकाश है; परंतु यह नहीं जानता कि,अहंभावकलना कहाँते लगी है, इसके नाश करनेको मैं समर्थ नहीं, अरु यह मैं जाना कि, संसारका बीज चित्त है, अरु चित्तका बीज अहंकार है, तुम्हारी कृपाते मैं जाना