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योगवासिष्ठ।

कोई नहीं, जैसे सूर्यका प्रतिबिंब जलविषे होता है, अरुजलके हलनेकरि प्रतिबिंब चलता भासता है, तैसे देहके सुखदुःखकरि आत्माविषे सुखदुःख विकार मूर्ख देखते हैं, आत्मा सदा निर्लेप हैं अरु जब सम्यक यथाभूत आत्मज्ञान होवै, तब देहविषे स्थित भी भ्रमको न प्राप्त होवै॥ हे रामजी! जब यथाभूत ज्ञान होता है, तब सत‍्को सत् जानता है, अरु असत‍्को असत् जानता है, जैसे दीपक हाथविषे होता है, तब सत् असत् पदार्थ भासते हैं, तैसे ज्ञानकरि सत् असत् यथार्थ जानता है, अरु अज्ञानकरि मोहविषे भ्रमता है, जैसे वायुकारि पत्र भ्रमता है, तैसे मोहरूपी वायुकरि अज्ञानी जीव भ्रमता है, स्वस्थ कदाचित् नहीं होता, जैसे यंत्रकी पूतली तागे करिकै चेष्टा करती है, तैसे अज्ञानी जीव प्राणोंरूपी तागेकरि चेष्टा करते हैं, जैसे नटुआ अनेक स्वांगको धारता है, तैसे कर्मकरि जीव अनेक शरीरको धारताहै, जैसे पेषणकी पुतली तृण काष्ठ फूलादिकको लेती त्यागती है, अरु नृत्य करती है, तैसे यह प्राणी चेष्टा करते हैं, शब्द स्पर्श रूप रस गंधका ग्रहण करते हैं, जैसे पुतलियां जड़ हैं, तैसे यह जड है, अरु जो कहिये इनविषे प्राण है, तौ जैसे लुहारकी खाल होती है, वह श्वासको लेती त्यागती है, तैसे यह जीव भी चेष्टा करते हैं॥ हे रामजी! अपना वास्तव स्वरूप है सो ब्रह्म है, तिसके प्रमादकरिकै मोह कृपणताको प्राप्त होते हैं. जैसे लुहारकी खाल वृथा श्वासको लेतीहै, तैसे इनकी चेष्टा व्यर्थ है, इनकी चेष्टा अरु बोलना अनर्थके निमित्त है. जैसे धनुष्यते जो बाण निकसताहै, सो हिंसाके निमित्त हैं, और कछु कार्य सिद्ध नहीं होता, तैसे अज्ञानीकी चेष्टा अरु बोलना अनर्थ दुःखके निमित्त है; सुखके निमित्त नहीं, तिसकी संगति भी कल्याणके निमित्त नहीं, जैसा जंगलका ठूंठा वृक्ष होता है, तिसके छाया अरु फलकी इच्छा करनी व्यर्थ है, तिसते कछु फल नहीं प्राप्त होता, अरु विश्रामके निमित्त छाया भी नहीं प्राप्त होती, तैसे अज्ञानी जीवकी संगतिते सुख नहीं प्राप्त होता, तिनको देना भी व्यर्थ हैं, जैसे चीकड़विषे घृत डाला व्यर्थ होता है तैसे मूर्ख को दान दिया व्यर्थ होता है, अरु तिनकेसाथ