पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५१

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योगवासिष्ठ । राकरिके सर्वका कारण ब्रह्मा प्रत्यक्ष जानाजाता हैं कि, सर्वकी उत्पत्ति ब्रह्माजीते भई है, ॥ कुंभ उवाच ॥ हेराजन् ! ब्रह्माते आदि काष्ठपर्यंत सर्व सृष्टि संकल्पकी रची है, अरु देह भी भ्रम कारकै भासता हैं, जैसे मृगतृSणाका जल भासता है, जैसे सीपीविषे रूपा भासता है, तैसे आत्माविर्षे देह भासता है, जैसे आकाशविषे दो चंद्रमा भ्रमकारकै देखते हैं, तैसे आत्माविषे यह संसार भ्रमकारिकै भासता है, अरु जो तू कहै, क्रिया कैसे दृष्ट आते हैं, तौ सुन, जैसे कोऊ कहै, वंध्याके पुत्रको भुषण पहिरा ये हैं, जो वंध्याके पुत्रही नहीं तौ भूषण किसने पहिरे, सो भ्रम कारकै भासता है, जैसे स्वमविषे सब क्रिया होती हैं, सो भ्रममात्र हैं, तैसे यह संसार तेरे भ्रमविषे हैं, जब भ्रम निवृत्त होवैगा, तब केवल आत्माही भासैगा ॥ हे राजन् ! जैसे तू अपना देह जानता है, तैसे ब्रह्माका भी जान, ब्रह्माका कारणकौन हैं, ताते इस भ्रमते जाग, जो तेरा भ्रम नष्ट हो जावै ।। राजोवाच ॥ हे भगवन् ! मैं जागा हौं, अब मेरा भ्रम नष्ट भया है, अरु मैंने यह संसार मिथ्या जाना है, कि केवल संकल्पमात्र है। जोकछु दृश्य है, सो मिथ्या है, अरु एक आत्माही मेरे निश्चयविषे सत् भया है । हे भगवन् ! ब्रह्माका कारण भी ब्रह्म है, अरु अद्वैत है, अवि. नाशी है, अरु सर्वात्मा है, ब्रह्माका कारण यह हुआ ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! कारण अरु कार्य द्वैतविषे होते हैं, सो असत् हैं, जो तिस कारणका देशते भी अंत होता है। वस्तुते भी अरु कालते भी अंत हो जाता है, अरु परिणाम होता है, जो वस्तु परिणामी होवे सो मिथ्य है ॥ हेराजन् ! आत्मा अद्वैत है, जिसविषे न एक कहना है, न द्वैत कहना है, न भोगता हैं, न भोगहै, न कर्म है, अद्वैत है, जो स्वरूपते परिणामको नहीं प्राप्त भयो, अरु सर्वात्मा है, जो सर्व देश है। अरु सर्वकाल भी है, जो सर्व वस्तुविषे पूर्ण है, अरु अद्वैत है, जो अद्वैत है, तो कारण कार्य किसका होवे, कारणकार्यका संबंध द्वैतविषे होता है, - अरु परिणामी होता है, अरु जिसविषे देशकालका अंत है सोआत्मा अद्वैत - है, तिसविषे नकोऊ देश है, न कालहै, न कोऊ वस्तु है, चिन्मात्रपद है।