पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५२

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शिखरध्वजविश्राँतिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६ हे राजन् मैं जानता हौं कि, तू जाग्रत होवैगा भ्रम तेरा नष्ट हो जाता है, जैसे बर्फकी पुतली सूर्यको किरणोंसों क्षीण हो जाती है, तैसे तेरा अज्ञान नष्ट हो जाता है, अज्ञानके नष्ट हुएते तू आत्माही होवैगा, तू अपने प्रत्यक् चेतनस्वरूपविषे स्थित होडु, अरु देख कि, ब्रह्मा आदिक सर्व परमात्माका किंचन है, परमात्माही ऐसे होकार स्थित भया है, अरु जो, दृष्टि पडता है, तिस सर्वका अपना आप आत्मा हैं, जो जागै तौ जाने, जागेविना नहीं जानता ।।राजोवाच ॥ हे भगवन् ! तुम्हारी कृपाते मैं जागा हौं, अरु जानता हैं कि मेरा स्वरूप आत्मा है, अरु मैं निर्मल हीं अब मेरा मुझको नमस्कार है, एक मैंही हौं, मेरेते इतर कछु नहीं, अरु आपको जाना है ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे राजविश्रीति वर्णनं नाम चतुःसप्ततितमः सर्गः ॥ ७४ ॥ पंचसप्ततितमः सर्गः ७५. शिखरध्वजविश्रांतिवर्णनम् । राजोवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कैसे कहते हौ कि, ब्रह्माका कारण कोई नहीं आत्मा ऐसा ईश्वर है, जो अनंत है, अरुअच्युत अव्यक्त अरुअद्वैत है, परमाणुका विषय नहीं, अरु परमब्रह्म है, सोई ब्रह्माका कारण है । कुंभ उवाच ।। हे राजन् ! तूही कहता है, कि आत्मा अनंत है, जो अनंत सिको देशकाल वस्तुका परिच्छेद नहीं, सर्व देश सर्व काल सर्व वस्तु पूर्ण है, सो कारण किसका होवे, कारण तब होवै जब प्रथम द्वैत होवै, सो आत्मा अद्वैत है, अरु कारण तिसको कहते हैं, जो कार्यते पूर्व होवै, अरु पाछे भी वही होवै, जैसे घटके आदि मृत्तिका है, अंतभी मृत्तिका होती है; तिसको कारण कहते हैं, सो आत्माविषे न आदि है, न अंत है, आत्मा अनंत हैं, अरु कारण तब होता है, जब परीणाम होता हैं, जब परिणाम होता है, सो आत्मा अच्युतह, अपने स्वरूपते कदाचित नहीं गिरा, अरु भोक्ता भी द्वैतविषे होता है, सो आत्मा अद्वैत, भोग भोक्ता दोनोंनहीं अरु आत्माविषे कर्म भी नहीं कि, आत्माते आदिकौन