पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५३

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यौगवासिष्ठ । है, जिसकार आत्मा सिद्ध होवै, अरु किसीका कार्य भी नहीं, काहेते कि जो कार्य होता है, सो इंद्रियोंका विषय होता है,सोआत्मा अव्यक्त हैं, अरु जो कार्य होता है, तिसका कारण भी होता है, सो आत्मा सर्वकी आदिहै, तिसका कारण कौन होवे जो सर्वात्मा है, अरु स्वच्छ है,आकाशवत् निर्मल तेरा स्वरूप है ॥ राजोवाच ॥ हे भगवन् ! बडा आश्चर्यहै, मैने जाना है कि, जो आत्मा अद्वैतहै, सो न किसीकाकारण है,न कार्य है, अरु अनुभवरूप है, सो मैं हौं, अरु निर्मलहौं, विद्या अवियाके कार्य ते रहित हौं, अरु निर्वाण पद हौं, अरु निर्विकल्प हौं, मेरेविषे ऊरणा कोई नहीं बहुरि कैसा हौं, जो मैं नहीं अरु मैंही हौं, ऐसा जो सर्वात्माहौं मेरा मुझको नमस्कार है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणिप्रकरणे शिखरध्वजविश्रांतिवर्णनं नाम पंचसप्ततितमः सर्गः ॥ ७५ ॥ - =- -= षट्सप्ततितमः सर्गः ७६. शिखरध्वजबोधवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! राजा शिखरध्वज कुंभमुनिको प्रबोध हुआ,ऐसे वचन कहिकरि केवल निर्वाणपविषे स्थित भया,जब निर्विकप फुरणेते एक मुहूर्तपर्यंत स्थित रहा, जैसे दीपक वायुते रहित स्थित होता है, तब कुंभने जगायकर कहा ॥ हे राजन् ! तेरा समाधिसाथ क्या है, अरु उत्थान क्या है, तू तौ केवल आत्ममात्र है, अरु मैं जानताहौं कि तू परमज्ञानकार शोभत भया है, जैसे डब्बेविषे रत्न होता हैं, तिसका प्रकाश बाहिर दृढ़ नहीं आता, अरु जब डब्बेसों निकासिकार देखिये तब बडा प्रकाश होताहै, तैसे अविद्यारूपी डब्बेसों, तू निकसाई, अरु परमज्ञान कारकै शोभत भयाहै ॥ हे राजन् ! तेरेविषे न कोई क्षोभ, न कोई उपाधि है, संसारके रागद्वेषते तू रहित भया है, शाँतरूप जीवन्मुक्त होकर विचरु, तेरे ताई उपाधि कोई न लगैगी ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जब इसप्रकार कुंभ मुनि कहा तब राजाशतिरूप हो गयाअरु