पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५४

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शिखरध्वजबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११३५) कहा ॥ हे भगवन् ! जो कछु तुमने आज्ञा करी सोसर्व भलीप्रकार मैंने जाना है, अब एक प्रश्न और है, तिसका उत्तर कृपाकर कहौ, जो मैं दृढ स्थित होऊँ ॥ हे भगवन् । आत्मा तौ एक है, अरु शुद्ध है, केवल आकाशरूष है, चेतनमात्र है, तिसविषे द्रष्टा दर्शन दृश्य त्रिपुटी कहाँते उपजी है, सो कहौ ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! जो कछु स्थावर जंगम संसार है, सो महाप्रलयपर्यंत है, जब महाप्रलय होता है, तब केवल आत्माही शेष रहता है, अरु स्वच्छ निर्मल होता है, तहाँ न तेज होता है, न अंधकार होता है, केवल अपने आप स्वभावविचे स्थित होता है, अरु जेता कछु आनंद है, तिसका अधिष्ठान आत्मा है, अरुसअसवते रहित है, सव कहिये जिसको बुद्धि इदं कार कहते हैं, अरु असत् कहिये जिसको नहीं कहते हैं, तिस सअसत्ते रहित अरु सर्व लक्ष्मीकार संयुक्त जो अपना स्वभावमात्र है, जिसविषे उपाधि कोऊ नहीं, अरु सर्वदा प्रकाशवान है, अरु सर्वदा उद्यरूप है, तिस परमात्माका यह संसार चमत्कार है, जैसे रत्नका चमत्कार लाट होती है, तैसे ब्रह्मका चमत्कार यह संसार है, ताते ब्रह्मरूप है, इतर कछु नहीं हुआ, केवल ब्रह्मरूप है; अरु ब्रह्मते इतर कारकै है, सो मिथ्याही भ्रम जानना, जो कछु आकार भासते हैं, सो असत् हैं ॥ हेराजन् ! जो सब आकार मिथ्या हैं, तौ तेरीसंवेदन भी मिथ्या है, आत्माविषे अहं त्वंका उत्थान कोई नहीं, केवल ज्ञानमात्र है, अरु केवल सत्रूप है, अरु आनंदरूप है, अरुअविद्या तमते रहित प्रकाशरूप है, अरु प्राणोंकार नहीं जानाजाता जो इंद्रियोंका विषय नहीं, अरु मनकी चितवनाते रहित है. काहेते कि, सर्वका द्रष्टा है, अरु सर्वका अपना आप अनुभवरूप हैं । हे राजन् ! तिसविर्षे स्थित होङ, बहुरि आत्मा कैसा है कि, बडेते बडा है, अरु सूक्ष्मते सूक्ष्म है, स्थूलते स्थूल है, जिसविषे आकाश भी किसी ओर अणु जैसा पाता है, अरु ब्रह्मांड भी तिसविष तृणसमान पाते हैं, अरु अपने आपकार पूर्ण है,अरु अपने आपकरि घूर्म है, अरु किंचित् भीतिसते उत्पन्न कहीं नहीं भया अरु नानाप्रकार करिकै स्थित भया है, ऊरणेकारकै जगत भासता है।