पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५५

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( ११३६ ) यौगवासिष्ठ । फुरणेके निवृत्त हुए केवल शुद्ध आत्मा है ॥ राजोवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हौ कि, संसार ऊरणेमात्र है, अरु आत्मा शुद्ध शाँतिरूप हैं, अरु निर्विकल्प है, तो तिसविषे संवेदन फुरणा कहाँते आया है ।। कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! ऊरणा भी आत्माका चमत्कार हैं, जैसे पवनविषे सस्पंद ऊरणा शक्ति भी है, अरु निस्पंद ठहरना शक्ति भी है, जब फुरता है, तब स्पर्श चलना प्रगट होता है, जब ठहर जाता है, तब प्रगट नहीं होता तैसे संवेदन जब फुरता है, तब नानाप्रकार होते हैं, अरु जगत् भासता है, जब फुरणा मिटजाता है, तब केवल शुद्ध आत्मा भासता है ॥ हे राजन् ! आत्मा सत्तामात्र है, अरु संसार भी सन्मात्र आत्माही हैं, जो सम्यक् दृष्टिकारि देखिये तो आत्माही भासता है, अरु असम्यक् दृष्टिकरिकै दुःखदायक जगत् भासता है, जिसके मनविषे, संसारभावना है, तिसको दुःखदायक भासता है, अरु जिसके हृदयविषे आत्मभावना होती है, तिसको आत्मादी भासता है, अरु सुखरूप होता है, काहेते कि, आत्मा नाम अपने आपका है, जिसने जगत्को अपना आप जाना, तिसको दुःख कहाँ होवे ॥ हे राजन् | यह संसार भावनामात्र है, जैसी भावना होती है, तैसेही भासता है, जिसकी भावना विषविषे अमृतकी होती हैं, तो विष भी अमृत हो जाता हैं, अरु जिसकी भावना अमृतविषे विषकी होती है, तब अमृत भी विष हो जाता हैं, काहेते कि संसार भावनामात्र है, जैसी भावना दृढ करता है, यद्यपि आगे वह वस्तु न होवे तौभी हो जाती हैं, ताते संसार भावनामात्र मिथ्या है, ज्ञानवान्को दुःख कदाचित् नहीं देता. अरु अज्ञानीको सुख कदाचित नहीं देता ॥ हे राजन् ! अहंता अरु संवेदन चित्त अरु चैत्य यह भी आत्माकी संज्ञा है, जैसे आकाश कहिये, शून्य कहिये, नभ कहिये यह सर्व संज्ञा आकाशकीही हैं, तैसे सर्व संज्ञा आत्माकी हैं, आत्माते इतर कछु नहीं, अहं त्वं सर्व आत्माके आश्रय हैं, जैसे भूषण स्वर्णके आश्रय होते हैं, परंतु स्वर्ण परिणामकरि भूषण होता है, जो पूर्वरूपको त्यागता है, आत्मा तैसे भी नहीं केवल एकरस है, अरु अपने आपविषे स्थित है, कदाचित परिणामको नहीं प्राप्त