पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५६

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शिखरध्वजबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११३७) भया, यह संवेदन आत्माका चमत्कार है, अरु सत् असते आत्मा परे हैं, जेता कछु दृश्य है, सो आत्माविषे नहीं, चित्तकारिकै रचा है, इसीते परे है ॥ हे राजन् ! सो कारण कार्य किसका होवे, कारण कार्य तब होता है, जब दृश्य होता है, सो आत्मा किसीका विषय नहीं, कारण कार्य किसीका होवे, अरु विश्वका आदि भी आत्मा है, अंत भी आत्मा है, अरु मध्यविषे भी आत्माही है, जो कछु अपर भासता हैं, सो भ्रममात्र है, जैसे आकाशविर्षे धर मंडल पुर दृष्ट आते हैं, तिसकी आदिभी आकाश हैं, अंत भी आकाश है, अरु मध्य भी आकाश है, जो घर मंडल पुर भासते सो मिथ्या हैं, जैसे अग्नि नानाप्रकार दृष्ट आता है। सो मिथ्या आकार है, एक अग्निही है, तैसे सर्वकी आदि मध्य अंत एक आत्माही सार है ॥ हे राजन् ! जैसे जलविषे भी देश काल होता है. काहेते कि, दृश्य है सो इंद्रियोंका विषय है, यह तरंग अमुक स्थानते उठा है, अरु अमुक स्थानविषे जायलीन भया, तौ स्थान देश हुआ, अरु उपजिकार एता काल रहा सो काल हुआ, अरु जिसको इंद्रिय विषयकार न सकें तिसविषे देश काल कैसे होवै ॥ राजोवाच ॥ हे। भगवन् ! मैं भलीप्रकार जाना है कि, आत्मा चिन्मात्र है, ज्ञानइंद्रियां कर्म इंद्रियोंते परे हैं, अरु देश कोल इंद्रियां मनकार जानता है कि, अमुक देश है अमुक काल हैं, जहां इंद्रियाँ अरु सनहीन होवै, तहाँ देश काल कहाँ है ॥ कुंभ उवाच॥ हे राजन् ! जो तैने ऐसे जाना तौ तू जाना है, आत्माविषे देश काल कोई नहीं, यह मन इंद्रियोंकार जानाजाता है। कि, यह देशहै, अरु यह काल है, जो इनते रहित होकार देखै तो आत्माही भासे, अरु जो इनसहित काल देखें तौ संसारही दृष्ट आवैगा॥ हे राजन् । इनते रहित होकार देख, जो संसार तेरेविषे कछु न रहे, जो अमुक प्रश्न किया, अब अमुक प्रश्न करौं, संसार तबलग होताहै, जबलगइनका संयोग अपनेसाथ होता है । हे राजन् ! ब्रह्मकार ब्रह्मको देखे अरु पूर्णको देखे जो तू भी पूर्ण होवे, जब पूर्ण होवैगा, तब सर्व ओर आपको जानेगा, अरु सर्व संज्ञा तेरीही होवैगी, अरु निर्वाच्य पदको प्राप्त होवैगा, जहां इंद्वियोंकी गम नहीं, केवल आकाशरूप है, जैसे आकाश अपनी