पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५७

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( ११३८ ) योगवासिष्ठ । शून्यताकार पूर्ण है, तैसे तू अपने चेतन स्वभावकार आप पूर्ण होवैगा, जब मनसहित षट् इंद्रियोंते रहित होकार देवैगा, अपने आपको बहार इनसहित देखेगा तौ भी तेरे ताई चेतन आत्माही भासैगा, संसारका शब्द अर्थ तेरे हृदयते उठि जावैगा, शब्द यह जो संसार है, अरु तिसको सत् जानना यह अर्थ है, सो भावना निवृत्त हो जावेगी, केवल आकाशरूप आत्माही भासेगा, अरु संसार संवेदनमात्र है, संवेदन कहिये चित्तशक्तिका चमत्कार है, यही चित्तशक्ति ब्रह्मा होकार स्थित भई हैं, अरु संसारको हेखने लगी है, जब अंतर्मुख होती है। तब आत्माही दृष्ट आता है, आत्मा सदा एकरस है, जब बहिर्मुख होती है, तब संसार दृष्ट आता है, जैसी यह भावना करता है, तैसेही आगे दृष्ट आता है, जबे संसारकी भावना होती है, तब संसारही भासता है, जब आत्माकी भावना होती है, तब आत्माही भासता है, आत्मा सदा एकरस है, अरु असंसारी है, ताते हे राजन् । तू आत्माकी भावना करु, जो तेरे ताई आत्माही भासै ।। इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजबोधने नाम घट्सप्ततितमः सर्गः ॥ ७६ ॥ सप्तसप्ततितमः सर्गः ७७.. शिखरध्वजप्रथमबोधवर्णनम् । कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! यह संसार जो तेरे तांई भासता है, सो आत्माविषे नहीं, केवल शुद्ध आत्माविषे जो अहं उत्थान है, सोई संसार है, सो अहंका चमत्कार न सत् है, न असत् है, न अंतर है, नबाहर है, न शुन्य है, न अशून्य हैं, केवल अपने आपविषे स्थित है, अरु संसारका अध्वंसाभाव भी नहीं, प्रध्वंसाभाव कहिशेजो पहिले होवै, पाछेनाश हो जावै, सो संसारका उदय अरु अस्त होना आत्माविषे नहीं, केवल अपने आपविषे स्थित है, तिसते इतर कछु नहीं, यह कहना भी आत्मा-- विषे नहीं, जो केवल अपने आपविष स्वाभाविक स्थित हैं, तिसविषे