पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५८

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शिखरध्वजबोधवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. { ११३९ ) वाणीकी गम नहीं, वाणी तिसको कहते हैं, जहां दूसरा होता है, जहाँ दूसरा न होवै तहाँ वाणी क्या कहें, यह कहना भी तेरे उपदेशनिमित्त कहा है, आत्माविषे किसी शब्दकी प्रवृत्ति नहीं ॥ हे राजा ! ऐसा आत्माका कारण कार्य किसका होवे, आत्मा शुद्ध है, निर्विकार है, अरु प्रमाणोंते रहित है, जो किसी लक्षणकार प्रमाण किया नहीं जाता, सो आकार होकर स्थित भया है, अरु शांतरूप है॥हे राजा ! ऐसा आत्मा है, कारण कार्य किसका होवे, कारण कार्य तब होता है, जब प्रथम परिणामको प्राप्त होता है, अरु क्षोभको प्राप्त होता है, सो आत्मा शतरूप है, अरु कारण तब होवै, जब क्रिया कारकै कार्यको उत्पन्न करें, सो आत्मा अक्रिय है, क्रियाते रहित हैं, अरु कारणको कार्यते जानना है, सो आत्मा चिह्नते रहित है, अरु प्रमाणोंका विषय नहीं, ताते कारण कार्य आत्मा किसीका नहीं, अरु आत्माको कारण कार्य मानना मेरे ताई आश्चर्य आता है । हे राजन् ! जो वस्तु उपजती है, सो नष्ट भी होती हैं, अरु-जो नष्ट होती है सो उपजती भी है, सो आत्मा सर्वकी आदि है, अरु अजन्मा है, अरु निर्विकार है, तिसविषे स्थित होउ, जो तेरा संसार निवृत्त हो जावै, यह संसार अज्ञानकारकै भासता है, जब तू स्वरूपविषे स्थित होकर देखेगा, तब संसार न भासैगा, अरु ऐसे भी न भासैगा कि, संसार आगे था, अब निवृत्त हुआ है, एकरस आत्माही भासैगा, केवल शून्य आकाश हो जावैगा, शून्य कहिये संसारते रहित हो जावैगा, स्वरूप चेतन नाना कारकै भी वही हैं, अरु एक भी वही है, शून्य है, अरु शून्यते रहित है, द्वैतरूप भी वही है, अद्वैतरूप भी वही है, ऐसा भासैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजप्रथमबोधो नाम सप्तसप्ततितमः सर्गः ॥ ७७ ॥ अष्टसप्ततितमः सर्गः ७८. शिखरध्वजबोधवर्णनम् । कुंभ उवाच ।। हे राजा ! जो कछु देखता है, सौ चेतन धन है, तिस-- विषे अहे त्वं शब्द कोई नहीं, अरु अहं त्वं शब्द प्रमादकार होते हैं, जब