पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२५९

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(११४० ) योगवासिष्ठ । आत्माविषे स्थित होकार देखेगा, तब आमाते इतर कछु न भासैगा, तौ अहं त्वं शब्द कहाँ भासै ॥ हे राजन् ! यह नानाप्रकारकी संज्ञा चित्तते कल्पी हैं, जब चित्तते रहित होवैगा, तब नाना अरु एक संज्ञा कोई न रहेंगी ॥ हे राजन् ! सर्वं ब्रह्म है, यह वाक्य वेद्का सार है, जब इस वाक्यविषे दृढभावना बुद्धि होगी तब एकरस आत्माही दृष्ट आवैगा, अरु चित्त नष्ट होजावैगा, जब चित्त नष्ट हुआ, तब केवल महाशुद्ध आकाशकी नाईं स्थित होवैगा, निदुःखपदको प्राप्त होवैगा, जो पद सर्वकी आदि है, अरु सर्वदा सुक्तरूप है। राजोवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा कि, चित्तके नष्ट हुएते दुःख कोई न रहेगा, सो चित्तनष्टका उपाय तुमने कहा है, परंतु मैं दृढकर नहीं समझा, ताते मेरे दृढ होनेके निमित्त कृपा करकै बहुरि कहौ कि, चित्त कैसे नष्ट होता है, ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! यह चित्त न किसी कला है, अरु न किसीको है, न यह देखता है, चित्त है ही नहीं, तो मैं तेरे तांई क्या कहौं; अरु जो चित्त तुझको दृष्ट आता है, तौ तू आत्माही जान, आत्माते इतर वस्तु कछु नहीं ॥ हे राजन् । महासगंके आदि अरु अंत सृष्टि कोई नहीं, केवल आत्मा है, अरु यह कहना भी आत्माविषे नहीं, मैं तेरे जतावनेके निमित्त कही है। अरु मध्य जो कछु दृष्ट आता है, सो अज्ञानीकी दृष्टिविषे है, आत्माविषे सृष्टि कोई नहीं, आत्मा किसीका उपादान कारण, अरु निमित्त कारण नहीं कहेते कि अच्युत है; परिणामको नहीं प्राप्त भयो, अरु उपादान भी परिणामकार होता है, आत्मा शुद्ध है, अरु निराकार है, आकाशरूप है, सो कारण कार्य किसका होवै, अरु चित्त भी वासनारूप है। वासना तब होती है, जब वास होती है, वास कहिये वासना करनेयोग्य जो आगे सृष्टि भी नहीं तौवासना किसकी फुरै, अरु चित्तविषे संसारकी स्थिति कैसे होवे, ताते चित्त कछु नहीं; यह विश्व आत्माका चमत्कार है, अरु सृष्टि आत्माविषे कोई नहीं, निरालंब केवल अपने आपविषे स्थित है ॥ हे राजन् ! संसार भी नहीं भया, अरु चित्त भी नहीं भया, तौ अहं त्व आदिक शब्द भी आत्माविषे कोई नहीं यह शब्द तब होते हैं, जब चित्त होताहै,अरु चित्त तबलगहै,जबलगवासना है, जब निर्वासनिक