पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६०

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शिखरध्वजबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११४१) पदको प्राप्त भया, तब कल्पना कोई नहीं रहती ।। हे राजन् ! यह संसार महाप्रलयविषे नष्ट हो जावैगा, सत् असत् संसार कछु न रहैगा, एक आत्माही शेष रहूँगा, जो निराकार अरु शुद्ध है, जबलग महाप्रलय नहीं भया, तबलग संसार है, सो महाप्रलय क्या है श्रवण करु, एक क्षण आत्माका साक्षात्कार होना, तिसकार सृष्टिका शेष भी न रहैगा, सो ज्ञानही महाप्रलय है, अरु अब जो दृष्टि आता है, सो मिथ्या है, यह क्रिया भी मिथ्या है अरु इसका भान होना भी मिथ्या हैं. जैसे स्वमकी क्रिया भी मिथ्या है, तिसका भान होना भी मिथ्याहै, तैसे जागृत संसार स्वप्नमात्र है, कारणविनाही भासता है, जो कारणविना है, सो मिथ्या है, इसका कारण अज्ञानही है, जो अपना नजानना, जब आपको जाना तब अपना आपही भासैगा, जैसे स्वप्नविषे अपने न जाननेकार भिन्न आकार भासते हैं, जब जागा तब अपना आपही जानता है, कि, मैंही था । हे राजन् ! मेरे ताई तौ एक आत्माही दृष्ट आता है, आत्माही है, आत्माते इतर संसार कोई नहीं, अरु इस संसारको स्थित मानना मूर्खता है, सदा चलरूप हैं, वेद शास्त्र अरु लोक भी कहता है कि, संसार मिथ्या है, अरु आप भी जानता है जो नष्ट होजाता है, दृष्टि आता है, तिसविषे आस्था करनी मूर्खता है, आत्माविषे संसार नाना अनाना को नहीं आत्मा सर्वदा अपने आपविषे स्थित है, शुद्ध है, अरु अच्युत ज्योंका त्यों है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजबोधो नाम अष्ट्रसप्ततितमः सर्गः ॥ ७८ ॥ एकोनाशीतितमः सर्गः ७९. -14 शिखरध्वजबोधवर्णनम् । शिखरध्वज उवाच ॥ हे भगवन् ! अब मेरा मोह नष्ट भया है, अरु अपना आप मैंने जाना है, तुम्हारी कृपाते मेरा संसार निवृत्त भया है, शोकसमुद्रको अब तरा हौं । अरु शीत पदको प्राप्त भया हौं, अहं त्वं