पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६१

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(११४२ ) योगवासिष्ठ । शब्द मेरेविषे को नहीं, निर्वाणपदको प्राप्त भया हौं, अच्युत हौं, चिन्मात्र हौं, केवल हौं, अरु शून्य हौं । कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! आत्मा शुद्ध आकाशकी नई निर्मल है, आकाशते भी सो अति निर्मल है, तिसविषे अहं मल है, सो अहं मोहते उपजी है, मोह कहिये अविचार, जब विचार होता है, तब अहंको नहीं पाता, यह विश्व संवेदनविषे है, संवेदन सर्वके आदि होकार स्थित भई हैं, जब संवेदन अंतर्मुख होती है, तब सर्व विश्व लीन हो जाती है, संवेदनहीविषे बंध अरु मुक्ति है, जब बहिर्मुख होती है, तब बंध है, जब अंतर्मुख होतीहै, तब मोक्ष है, जिसने मन अरु इंद्रियोंते रहित होकर अपना आप देखा है, तिसको ज्योंका त्यों दृष्ट आता है,अरु जो मोहसंयुक्त देखता है, तिसको विपर्यय भासताहै, जैसे सम्यक् दृष्टि करिकै भूषणविषे स्वर्ण भासता है, जब भूषणके आकार जाते हैं, तब भी स्वर्ण ही है, अरु मूर्खको सोनेके विषे भूषण दृष्टआते हैं. चिरकालके अध्यास कारकै जो बुद्धि इनविषे फुरती है, तो भी प्रारब्धके वेगपर्यंत चेष्टाहोतीहै तब चेष्टाविषे भी आत्माही दृष्टि आता है; तातेकेवल आत्माहीका किंचन होता है, जैसे सोनेविषे भूषण अरु आकाशविषे नीलता अरु वायुविषे स्पंदता है, तैसे आत्माविषे सृष्टि है, जैसे आकाशविषे नीलता देखनेमात्र है, वास्तव कछु नहीं, तैसे आत्माविषे सृष्टि वास्तव कछु नहीं, भ्रांतिमात्रहीहै, जब भ्रांति निवृत्त होवैगी, तब जगतुका शब्द अर्थं सर्वओरते शांत होवैगा, अरु शब्द अर्थकी भावनाते जो चेष्टा होती है, तिसते जब अभिलाषा निवृत्त हो जाती है, तब दुःख को नहीं होता, इसीको मुनीश्वर निर्वाण कहते हैं, जब ऐसा निश्चय निर्वाणपदका हुआ, तब शतरूप शून्यपदको पायकारे स्थित होता है । हे राजन् ! अहंका उत्थान होना यही बंधन, अरु अहँका निर्वाण होना यही मुक्ति है, अरु अहंके होनेकर संसार दुःख है, जबलग अहंका उत्थान है तबलग संसार है, अंरु जबलग संसार हैं, तबलग अहंका उत्थान है, जब संसारकी सत्ता जाती है तब अहं ऊरना भी नष्ट होजावैगा, जब ऊरणा नष्ट भया,तब अहं भी नष्ट होजावैगा, जब अहं नभया तब केवल शुद्ध आत्माही शेष रहेगा, अरु अनामय एकही एक अरु से आत्मण 7व कृछनमात्र है.