पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६२

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शिखरध्वजबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११४३ ) निदुःखही भान होवैगा, अहं ब्रह्मका उत्थान भी शांत हो जावैगा, अरु चेतन मात्रही · रहेगा । हे राजन् ! जिसको सर्वं ब्रह्मकी बुद्धि भई है, तिसको संसारकी बुद्धि नहीं, अरु जिसको संसार बुद्धि है, तिसको ब्रह्मबुद्धि नहीं जैसी जैसी भावना दृष्ट होती है। तैसाही आगे भासता है, जिसको ब्रह्मभावना दृढ़ होती है, सो ब्रह्मरूप हो जाता है, अरु जिसको जगवकी भावना दृढ़ होती है, तिसको जगत् भासता है ॥ हे राजन् ! तू अब जागा है, अरु ब्रह्मस्वरूप हुआ है, जो शुद्ध निर्मल है, अरु प्रत्यक्है,जो किसी शब्द अरु लक्षणका विषय नहीं अरु इंद्रियोंका विषय नहीं । हे राजन् । ऐसा आत्माकारण कार्य जिसका होवे, जो केवल अद्वैत है, अरु विश्व आत्माका चमत्कार हैं, जैसे समुद्रविषे नानाप्रकारके तरंग पवनकारि उपजते हैं, तो भी समुद्रते इतर कछु नहीं, तैसे आत्माविषे नानाप्रकारकी विश्व संवेदन फुरणेक रिकै उपजती है तो भी आत्माते इतर कछु नहीं, ऊरणेमात्र है, जैसे स्तंभेविषे मनोराज्यकारि कोऊ पुरुष पुतलियाँ कल्पता है, अरु नानाप्रकारकी चेष्टा करता है, इनकी चेष्टा तबलग है, जबलग संकल्प हैं, जब संकल्प निवृत्त हुआ, तब शून्य स्तंभही रहता है, जैसा आगे भी शून्य था, अरु तिसकी संवेदनविषे सृष्टि थी, तैसे यह संसार संकल्पमात्र है, जब संकल्प अंतर्मुख भयो, तब संसारकी सत्ता जाती रहती है। हे राजन् ! संसारसत्ता जाती तब है जो आगेही असत् है,अरु जो वस्तु सत होती है, तिसका नाश कदाचितू नहीं होता, ताते केवल संवेदन कल्पी है, जैसे एक शिलाविषे पुरुष पुतलियाँ कल्पता हैं, तो शिलाविर्षे तौ पुतली को नहीं, ज्योंकी त्यों शिलाही है, तैसे फुरणेकरिकै आकार दृष्ट आते हैं, जब चित्त फुरणेते रहित होवैगा, तब आत्माको अपना आप जानैगा, अरु अशब्द पदको प्राप्त होवैगा, जो शांतिपद हैं, अरु शुद्ध आकाशरूप है । हे राजन् ! सर्व शब्द अरु सर्व अर्थको अभावना यह ब्रह्म अर्थ है, जहां कोऊ कल्पना नहीं, जब सम्यक् दृष्टि होती है, तब शेष आत्माही भासता है, अरु यह भावना भी उठ जाती है,