पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६३

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(. ११४४ ) योगवासिष्ठ । जो यह संसार है, यह ब्रह्म हैं, केवल ज्ञेयमात्रही होय रहता है, कैसा ज्ञेयमात्रही है, जो शिलाकी नाईं ज्ञान है, ऐसा शेष रहता हैं । इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिखरध्वजबोधवर्णनं नाम एकोनाशीतितमः सर्गः ॥ ७९ ॥ अशीतितमः सर्गः ८०, परमार्थोपदेशवर्णनम् ।। राजोवाच ।। हे भगवन् ! जैसे तुम कहते हौ, सो सत्य हैं, अरु मैं ऐसे जानता हौं कि, संसार आत्माको कार्य है, अरु आत्मा कारण है, जो आत्माका कार्य हुआ तौ आत्मस्वरूप हुआ, आत्माते इतर नहीं है। कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! आत्मा चैतनमात्र हैं, कारण कार्य किसीका नहीं जो आत्मा अप्रत्यकू है, अरु अक्रिय है, अच्युत है, निरस हैं, जो अशब्द पद है, सो कारण कार्य किसका होवै, अरु कारणको कार्यद्वारा जानता है, अरु आत्मा किसी प्रमाणका विषय नहीं, जो अप्रत्यक है, अरूप है, अरु कारण तब होता है, जो क्रिया होती है, न किसीका कारण कार्य है, न कर्म है, केवल ज्योंका त्यों अपने आपविषे स्थित हैं, चेतनमात्र है, शिवरूप है, शुद्ध है, यह विश्व भी चेतनमात्र है, जैसे आकाशविषे आकाश स्थितहै, तैसे आत्माविषे विश्व आत्मरूपकारस्थित है, ऐसे विश्व चेतनमात्र है,तिसविषेअसम्यक् अज्ञानकार नानाप्रकार, कल्पता है,अज्ञानकहिथे वस्तुका नजानना,जो वस्तु परमात्मा है, तिसके प्रमादकरिकै वासनारूप चित्तसों विश्वको कल्पताहै, सो विश्व शब्दमात्र है, अर्थ कछु नहीं, जैसे दूसरा चंद्रमा आकाशविषे, जैसे तरंगसमुद्रविषे जैसे जल मृगतृष्णाविषे, जैसे वैताल परछाईंविषे तैसे असम्यकुदृष्टि आत्माविषे, विश्व कल्पताहै, अरु सम्यकुशऐसे जानता हैकि, आत्मा शुद्धहै अजन्मा है, अविनाशी है, परम निरंजन है । हे राजन् ! जब तू सम्यकू दृष्टिकार देवैगा, तब संसारका प्रध्वंसाभाव भी न देखेगा काहेते