पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६४

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परमार्थोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११४५) कि चित्तका कल्पा हुआ है, अरु चित्तअज्ञानकारकै उपजा है स्वरूपविषे न चित्त है, न अज्ञान है न संसार है, केवल अद्वैत मात्र हैं, तहां एक कहां, अरु अद्वैत कहाँ, केवल मात्र पद है, जब अज्ञान नष्ट हुआ, तब अहं त्वं (चित्त फुरणा) सब नष्ट हो जावैगा, बहुरि भ्रम दृष्ट न अवैगा ।। हे राजन् ! आत्माते इतर जो कुछ भासता है, सो अज्ञानकारक है,विचार कियेते नहीं रहता ॥ राजोवाच ॥ हेभगवन् ! अज्ञान क्या है, अरु नाश कैसे होवे सो कहौ ॥ कुंभ उवाच ॥ हे राजन् ! एक ज्ञान हैं, अरु एक अज्ञान है, ज्ञान यह कि पदार्थको प्रत्यक्ष जानना, अरु अज्ञान यह कि पदार्थको न जानना, अरु एक ज्ञान भी अज्ञान है, सो श्रवण करु, मृगतृष्णाका जल देखकर आस्था करणी जो है, अरु जेवरीविषे सर्प, सीपीविषे रूप देखना अरु तिसको सत्य जानना, यह ज्ञान भी अज्ञान है, काहेते कि सम्यकदर्शी होकार नहीं देखता, यह दृष्टांत है, अरु दात यह हैं, जो शुद्ध आत्मा निराकार अच्युत है, तिसविषे मैं हौं, अरु मेरा अमुक वर्णाश्रम है, अरु नानाप्रकार विश्व जानना, यह ज्ञान भी अज्ञान है, अरु मूर्खता है । हे राजन् ! न कोङ, जन्मता है, न कोङ मृत होता है, ज्योंका त्यों आत्माही स्थित है, तिसविर्षे जन्म मरण आदिक विकार देखना, ऐसा जो ज्ञान है सो अज्ञान है । हे राजन् ! जैसे कोॐ ब्राह्मण होवे, अरु ऊंची बाहुकार कहै, मैं शुद्र हौं, मेरे ताईं वेदका अधिकार नहीं अरु जैसे कोऊ पुरुष कहै, मैं मुआ हौं, तिसको मैं जानता हौं, तैसे आपको कछु वर्णाश्रमका अभिमान लेकर कहना सो मूर्खता है, काहेते कि असम्यक्रदर्शन है, जब ज्योंका त्यों जानै, तब दुःखी न होवै ॥ हे राजन् ! ऐसा ज्ञान जो सम्यकुदर्शनकारि नष्ट हो जावै सो अज्ञान है, जैसे सूर्यकी किरणों विषे जलवुद्धि होती है, किरणके ज्ञानते जलका ज्ञान नष्ट हो जाता है सो जलका जानना अज्ञान था, जैसे जेवरीविषे सर्प जानना सो सर्पका ज्ञान जेवरीके ज्ञानते नष्ट हो जाता है, यह अज्ञान है, सम्यक्दर्शनकारिकै नष्ट होता है, जब ऐसा सम्यकूदर्शी होवैगा,तबआध्या त्मिकतापनिवृत्त हो जावैगा, अरुशुद्ध होवैगा, जो आत्मा है, अज है, अरु शतिरूप है, मत् असत् सर्व अत्मा है, तिसते इतर कछु नहीं,