पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६५

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(११४६) योगवासिष्ठ । अरु प्रकाशरूप हैं सो ऐसा तू है ॥ हे राजन् ! अज्ञान भी अफ्र को नहीं इस चित्तके उदय होनेका नाम अज्ञान है, अज्ञानका कारण चित्त है, अरु जो पदार्थ चित्तकारके उदय हुआ है, सो नष्ट भी चित्तकारिके होता है ताते तू चित्तरकै चित्तको नाश कर, जैसे अग्नि पवन कारके उपजता है, अरु पवनहीकार शांत होता है, तैसे चित्तकार चित्तको नष्ट करु । हे राजन् ! न तू है, न मैं हौं, नइंद्रिय है, न संसार है, न यह जगत् है, केवल शुद्ध आत्मा है । हे राजन् ! जो चित्तही नहीं, तौ चित्तका कार्य विश्व कहाँ होवै, यह अज्ञानीको भासता है, जो चित्त है, अरु विश्व है, केवल अपने आपविषे आत्मा स्थित है । हे राजन् ! चित्तका उदय होना अज्ञानते हैं, जब अज्ञान नष्ट हुआ, तब चित्त अरु अहं त्वं सर्व नष्ट हो जाते हैं ।। हैं राजन् ! तू शुद्ध आत्मा हैं, एक है अरु प्रकाशरूप हैं, अच्युत है, अरु निरंतर है, अरु देह इंद्रियादिकरूप होकार भी तूही स्थित भूया है, इच्छा अनिच्छा भी तूही - है, जैसे चंद्रमाकी किरणें चंद्रमाते भिन्न नहीं, तैसे तू है, अरु निर्विकल्प हैं, कछु ऊरणा तेरे विषे नहीं, तू केवल ज्योंका त्यों स्थित है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे परमार्थोपदेशो नाम अशी तितमः सर्ग ॥ ८० ॥ एकाशीतितमः सर्गः ८१. शिखरध्वजबोधवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । जब ऐसे कुंभमुनिने कहा, तब शिखरध्वज श्रवण करके शौतिको प्राप्त भया, नेत्र बँदिकै सब अंगकी चेष्ठाते रहित हुआ, जैसे शिला ऊपर पुतली लिखी होवै, तैसे स्थित हुआ, एक मुहूर्तपर्यंत निर्विकल्प स्थित रहा, अरु बहुरि उठा तब कुंभने कहा है। राजन् ! आत्माजो निर्विकल्प है, तिस निर्विकल्प शिलाविषे तैने शयन किया, अरुज्ञेय जो जाननेयोग्य है सो तैने क्या जाना तेरा अज्ञान अब नष्ट भया, अथवा नहीं भया, अरुशोतिको प्राप्त भया, अथवा नहीं भया,