पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६६

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शिखरध्वजबोधवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११४७ ) सो कहु ॥ राजोवाच ॥ हेभगवन् ! तुम्हारी कृपाते मैं उत्तम पदको प्राप्त भया हौं । हे भगवन् ! तत्त्ववेत्ताके संगते जो अमृत पाताहै, सो क्षीरसमुद्रते भी नहीं पाता अरु देवताविषे भी नहीं पावता, तुम्हारी कृपाते मै ऐसे अमृतको पाया है, जिसका आदि अंत कोऊ नहीं, अनंत है, अरु अमृतसार है, अब मेरे दुःख सर्व नष्ट होगये हैं, अब मैं जागा हौं अरु अपने आपको जाना है, मैं आत्मा हौं, मेरेसाथ चित्त कोउ नहीं, मैं केवल अपने आपविषे स्थित हौं अब इच्छा मेरे ताई कोऊ नहीं, अपने स्वभावको पाया है, अरु सवैके आदिपको प्राप्त भया हौं, जिस विषे क्षोभ कोऊ नहीं, ऐसे निर्विकल्प पदको प्राप्त हुआ हौं । हे भगवन् ! ऐसा मेरा अपना आप है, जिस कार सर्व प्रकाशते हैं, तिसके जानेविना कोटि जन्म पाये थे, अब दुःख मेरे नाश भये हैं। तुम्हारी कृपाते एक क्षणविषे जाना है, आगे श्रवण भी करता, सो कारण कौन था, जो आगे न जाना, अरु अब जाना है ॥ कुंभ उवाच हे राजन् ! तेरे कपाय अब परिपक्व हुए हैं, जैसे फल परिपक्व होता है, तब यत्नविना वृक्षते गिर पड़ता है, तैसे तेरा अंतःकरण शुद्ध भया है, अब अज्ञान तेरा नष्ट होगया है, जब अंतःकरण मलिन होता है, तब संतके वचन नहीं लगते, अरु जब अंतःकरण शुद्ध होता है, तब संतके वचन लगते हैं, जैसे कोमलभिहको बाण लगै, तब शीघही बेधाजाता है, तैसे शुद्ध अंतःकरणविषे शीग्रही उपदेश प्रवेश करता है । हे राजन् ! अब भोगकी तेरी वासना नष्ट भई है, अरु स्वरूप जाननेकी इच्छा भई है, ताते तू जागा है । हे राजन् ! मैं उपदेश तब किया है, जब तेरा अंतःकरण शुद्ध भया है। अरु प्रतिबिंब भी तहां पड़ता हैं ? जहाँ निर्मल ठौर होती है, जैसे श्वेत वस्नके ऊपर केसरका रंग शीघ्रही चढि जाता है, अरु रंग भीउज्वल होता है, तैसे शुद्ध अंतःकरणविषे संतके वचन शीघ्रही प्रवेश करते हैं अरु शोभा पाते हैं हे राजन् ! जबलग अंतःकरण मलीन होता है, भावै। जेता उपदेश करिये तोऊ स्थित नहीं होता, जब भोगते वैराग्य होता हैं तब वासना कोई नहीं रहती, केवल आत्मपदकी इच्छा होती है तब