पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२६८

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शिखरध्वजबोधवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६. (११४९) त्याग किया, अब तिसका त्याग किया जो त्यागने योग्य अहंभाव है, ताते सर्व त्याग भया, अरु जो कछु जानने योग्य हैं, सो जाना है, अरु शांतपदको प्राप्त भया है ।। हे राजन् । तू आत्मा है, सर्व दुःखते रहित है, जैसे मंदराचल पर्वतते रहित क्षीरसमुद्र शांतपदको प्राप्त भया है, तैसे तू अज्ञानते रहित शांतपको प्राप्त भया हैं, अब तू जागा है, अरु चित्तका त्याग किया है, ताते सर्व आत्मा अद्वैत भया है ॥ हे राजन् । जब दो अक्षर होते हैं, तब तिनकी संज्ञा नानाप्रकारकी होती है, कि अमृत विष अरु सुख दुःख अरु धर्म अधर्म यह होते हैं, जब एकाएकी अक्षर होता है, तब सर्वका आत्मा है, तैसे दूसरा अज्ञान नष्ट भया हैं, अरु सत्यपदको प्राप्त भया हैं, अरु शुद्ध निर्मल है ॥ हे राजन् । जो ज्ञानवान् है। सम्यक् दृष्टिकारकै तिस चित्तका त्याग किया है, बहार तिसको दुःख कोऊ नहीं होता, सो तू तिस पदको प्राप्त भया है, जिसविषे दुःख को नहीं, अरु तिस पदको प्राप्त भया है, जहां स्वर्गादिक सुख तुच्छ हैं; स्वर्गविषे भी क्षयअतिशय होता है अतिशय कहिये जो बडे पुण्याला आपसों ऊँचा देखता है, तब चाहता है, कि, मैं भी इसी जैसा होऊ अरुक्षय कहिये मत इन सुरवसोंगिरौं, दोनों प्रकार दुःख होता है, सो पुण्य पाप दोनोंका तैने त्याग किया है, ताते तू सर्व त्यागी है,अरु अज्ञानी जो पापीजीव हैं, तिनको स्वर्ग भी भला है, जैसे स्वर्णका पात्रन पाइये तो पीतलका भी भला है, तैसे स्वर्णका पात्र जो ज्ञान है, जबलग प्राप्त न होवे, तवलग पीतलका पात्र जो स्वर्गादिक हैं, सो नरकते भले हैं, अरु तुम सारखेको कछु नहीं, जो आत्माविषे सर्व पदार्थकी पूर्णता है, अरु सर्वकी उत्पत्ति आत्माते है । हे राजन् । वर्णाश्रमविषे क्या अवस्था करणी है, जहाँते इनकी उत्पत्ति है, अरु जहां लीन होते हैं, अरु मध्यविषे जिसके अज्ञानते दृष्ट आते हैं, तिसविषे स्थित होइये जिसके ज्ञानते सर्व लीन हो जाते हैं । हे राजन् ! संकल्प विकल्प जो उठते हैं, तिनविषे स्थित मत हो, जिसविषे उत्पन्न अरु लीन होतेहैं, तिसविषे स्थित होहु, अरु तपादिक क्रियाकार क्या सिद्ध होता है, जिसकार तपादिक सिद्ध होते हैं, तिसविषे स्थित होहु, बूंदविषे क्या