पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७१

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(११५२) योगवासिष्ठ । चेष्टाविषे नहीं लगना, अरु स्वरूपको भली प्रकार जानिकरि भावै तैसे विचरहु ऐसे कहिकार कुम्भमुनि उठ खड़ा हुआ, तब राजाने अध्य अरु फूल चढ़ावनेके निमित्त हाथविषे लिये, सोजल फूल हाथविषे रहे, और कुम्भमुनि अंतर्धान होगया, जब राजा कुम्भमुनिको अपने आगे न देखत भया, तब विचार करने लगा, देखो ईश्वरकी नीति जानी नहीं जाती कि, नारदमुनि कहा था, अरु तिसका पुत्र कुम्भमुनि कहाँ, अरु मैं राजा शिखरध्वज कहां, नीतिहीने कुम्भमुनिका रूप धारिकरि सुझको आय जगाया है, अरु कुंभ बडा मुनि दृष्ट आया, जिसने मेरेको उपदेश कार जगाया है, अब मैं अज्ञानरूपीगतैसों निकसा हौं, 'अरु स्वरूपको प्राप्तभया हौं, संपूर्ण संशय मेरे नष्ट भये हैं, अरु निदुःख पदविषे स्थित भया हौं, अरुअज्ञाने निद्राते जागाहौं बड़ा आश्चर्य है। हे रामजी ! ऐसे कहिकार राजा शिखरध्वजने संपूर्ण इंद्रियां अरु प्राण मन स्थित किया, अरु चेष्टाते रहित भया, जैसे शिलाके ऊपर पुतली लिखी होती हैं, जैसे पर्वतका शिखरस्थित होता है, जैसे स्थित भया अरु वहां चुडाला कुम्भरूप शरीरका त्यागकर अरु चूडालाका सुन्दर रूप धारिकार उड़ी आकाशको लंघिकार अपने नगरविषे आवृत भई, अरु अंतःपुरमें जहों स्त्री रहती थी, तहां प्रवेश किया, अरु मन्त्रीको आज्ञाकरी कि, तुम अपने अपने स्थानविषे स्थित होङ, अरु रानी राजाके स्थानविषे स्थित भई, भली प्रकार प्रजाकी खबर लीनी, तीन दिन रहिकार बहुर उड़ी जहाँ राजा वनविषे था, तहाँ आय प्राप्त भई, अरु कुम्भका रूप धारकर देखा कि राजा समाधिविषे स्थित है, देखिकारे बहुत प्रसन्न भई॥हे रामजी ! ऐसे प्रसन्न होकर चूड़ाला विचारत भई बड़ा सुखकार्य हुआ, जो राजाने स्वरूपविषे स्थिति पाई, अरु शिितको प्राप्त भया बहुरि विचार किया, कि इसको जगाव, तब सिंहकी नाईं गर्जी अरु बड़ा शब्द किया, तिस शब्दकारकै जेते वनके पशु पक्षी थे, सो सर्व भयको प्राप्तभये, परन्तु राजा न जागा, बहुर हाथ कारकै हिलावती भई, तौ भी राजा न जागा, जैसे मेघके शब्दकारे पर्वतका शिखर चलायमान नहीं होता, तसे राजा चलायमान न भया, काष्ठ अरु पाषाणकीनाई स्थित रहा, तब रानीने विचार डी जहाँ बा कि राजकरि चूड़ा, अशांति गर्जी