पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२७२

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शिखरध्वजस्त्रीप्राप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( ११ ५३ ) किया कि, राजा शरीरको त्यागिन दुवै तौ ला, अरू जो राजाने शरीरका त्याग किया होवै, तो मैं भी त्यागी ।। हे रामजी । चूडा: लाने शरीर ल त्यागा, परंतु आरंभ करने लगी कि राजा अरू मैं इकट्ठा शरीर त्यागें है, बहुरि विचार करने लगी कि, इसकी भविष्यत् क्या होनी है तब राजाके नेत्रपर हाथ लगाया, अरू देहसाथ देहका स्पर्श किया, तब देखा कि, शाण राजाके शरीरविषे हैं, अरु भविष्यत्का भी विचार किया, कि इसका सत्त्व शेष रहता है, जीवन्मुक्त होकार राज्यमें विचरणा है ॥ राम उवाच ।। भगवन् ! तुमने कहा कि राजा काष्ठ अरु पापाणकी नाईं स्थित श्या, बहुार कहा कि हाथ लगायकार देखा कि ईलविङ्गे प्राण हैं, जीवता है, तौ कुंभने क्योरि जाना थह मुझको संशय है, सो दूर करौ ।। वसिष्ठ उवाच ।। है रामजी ! जिस शरीरवि पुर्यष्टका होती है, तिलविषे हारथावलता होती है॥हे रामजी ! अज्ञानीका चित्त रहता है, अरु ज्ञानीका सत्व रहता है, जो प्रारब्धवेग करिकै कुरता है, अरु ब्रह्माकार वृति होती है, अरु अज्ञानीका चित ऊरणेकरिके बहुर शरीर पाता है, अरू ज्ञानी इधअनिवि एक समान हता है, अरु अज्ञानी एक समान नहीं रहता, इष्टविहे असच्च अह अनिकी प्राप्तिविणे शोकवा होता है । हे रामजी ! ज्ञानी जव शरीरको त्यागता है, तब ब्रह्मसमुद्रविये स्थित होता है, अझ जवलग सत्त्व शेष है, तबलग फुरता है अरु अज्ञानी शरीरको त्यागता है, तब तिसविषे सूक्ष्म संसार होता है जैसे बीजविषे वृक्ष फूल फल सूक्ष्मता कारकै स्थित होते हैं, सो काल पायकार बहुरि निकलता है, तिसीङ्गार राजाका सत्य शेष रहा था, तिस कारकै बहुरि रैगा, तब कुंभरूप चूडालाने विचार किया कि, इसके अंतर प्रवेश कारकै जगाव, जो मैं न जगावगी, तो भी नीति कारकै इसको जानना है, ताते मैं ही जगाव ऐसे विचार कारकै अपने शरीरका त्याग किया, चेतनाविषे स्थित होकर अरु कुरणेको लेकर उस विषे जाय प्रवेश किया, प्रवेश कर उसकी जो चेतनता सत्त्व शेष था, उसको छोडूत भई. बड़ा क्षोभ दिया, जब राजा वहते हिला, तब आप निकस आई, अह अपने शरीरविचे प्रवेश किया, जैसे पखेरू आकाशवर्षे ७३